Friday 12 January 2018

Benefits of grapes and greater earning.

Benefits of grapes and greater earning.

अंगूर की आधुनिक खेती

अंगूर संसार के उपोष्ण कटिबंध के फलों में विशेष महत्व रखता है. हमारे देश में लगभग 620 ई.पूर्व ही उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में अंगूर की व्यवसायिक खेती एक लाभकारी उद्यम के रूप में विकसित हो गई थी लेकिन उत्तरी भारत में व्यवसायिक उत्पादन धीरे - धीरे बहुत देर से शुरूहुआ. आज अंगूर ने उत्तर भारत में भी एक महत्वपूर्ण फल के रूप में अपना स्थान बना लिया है और इन क्षेत्रों में इसकाक्षेत्रफल काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है. पिछले तीन दशकोंमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है.

उपयोग

अंगूर एक स्वादिष्ट फल है. भारत में अंगूर अधिकतर ताजा हीखाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं. इससे किशमिश, रसएवं मदिरा भी बनाई जाती है.

मिट्टी एवं जलवाय

अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है. अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है. अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है. अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है. जलवायु का फल के विकास तथा पके हुए अंगूर की बनावट और गुणों पर काफी असर पड़ता है. इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतू अनुकूल रहती है. अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है. इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है. अतः उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों की सिफारिश की जाती है.

किसme

उत्तर भारत में लगाई जाने वाली कुछ किस्मों की विशेषताएंनीचे दी जा रही हैं.
1-परलेट
2-ब्यूटी सीडलेस
3-पूसा सीडलेस
4-पूसा नवरंग

प्रवर्धन

अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है. जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जातीहैं. कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए. सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बीकलमें ली जाती हैं.कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए. इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं. एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं.

बेलों की रोपाई

रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें. खेत को भलीभांति तैयार कर लें. बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है. इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें. जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानीजड़वाली कलमों को लगा दें. बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है.

बेलों की छंटाई

अंगूर की बेल साधने हेतु पण्डाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवंहैड आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं. लेकिन व्यवसायिक इतर पर पण्डाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है. पण्डाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊँचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है. जाल तक पहुँचने के लिए केवल एक ही तानाबना दिया जाता है. तारों के जाल पर पहुँचने पर ताने को काटदिया जाता है ताकि पार्श्व शाखाएँ उग आयें.उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पार्श्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है. इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8 - 10 तृतीयक शाखाएँ विकसित होंगी इन्ही शाखाओं पर फल लगते हैं.

छंटाई

बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समयपर काट - छाँट अति आवश्यक है. छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए. सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है.

सिंचाई

नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है. फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है. क्योंकिइस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल परसिंचाई करनी चाहिए. फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं. फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए

खाद एवं उर्वरक

अंगूर की बेल भूमि से काफी मात्र में पोषक तत्वों को ग्रहण करती है. अतः मिट्टी कि उर्वरता बनाये रखने के लिए एवं लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए यह आवश्यक है की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति की जाये. पण्डाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है.

खाद कब द

छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजनएवं पोटाश की आधी मात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए. शेष मात्र फल लगने के बाद दें. खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें. खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई परडालें.

कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार

अच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर के बीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए. ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं. परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है.

फसल निर्धारण

फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है. अधिक फल, गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं. अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर60 - 70 एवं हैड पद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं. अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें.

छल्ला विधि

इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता, उपशाखा या तना से0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है. छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है. अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए. आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौडी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए.

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग

बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने सेदानो का आकर दो गुना होता है. पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवंपरलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए. जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है. यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है. फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है. यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जायेतो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं

फल तुड़ाई एवं उत्पादन

अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़नाचाहिए. शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फलपकने के लक्षण हैं. फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए. उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें. पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें. अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2- 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं. परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है.
प्रस्तावनाहमारे देश में व्यावसायिक रूप से अंगूरकी खेती पिछले लगभग छः दशकों से की जा रही है और अब आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बागवानी उद्यम के रूप से अंगूर की खेती काफी उन्नति पर है। आज महाराष्ट्र में सबसे अधिक क्षेत्र में अंगूर की खेती की जाती है तथा उत्पादन की दृष्टि से यह देश में अग्रणी है। भारत में अंगूर की उत्पादकता पूरे विश्व में सर्वोच्च है। उचित कटाई-छंटाई की तकनीक का उपयोग करते हुए मूलवृंतों के उपयोग से भारत के विभिन्नक्षेत्रों में अंगूर की खेती की व्यापकसंभावनाएं उजागर हुई हैं।भारत में अंगूर की खेती अनूठी है क्योंकि यह, उष्ण शीतोष्ण,सभी प्रकार कीजलवायु में पैदा किया जा सकता है। हालांकि अंगूर की अधिकांशतः व्यावसायिक खेती (85प्रतिशत क्षेत्र में) उष्णकटिबन्धीय जलवायु वाले क्षेत्रों में (महाराष्ट्र,कर्नाटक,आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु) तथा उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु वाले उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से ताजा अंगूर उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्र जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली व राजस्थान के कुछ भागों में अंगूर की खेती की जा रही है, जिससे जून माह में भी अंगूर मिलते हैं।संस्थान द्वारा की गई पहलभारतीय कृषि अनुसंधान में अंगूर की खेती जननद्रव्य के संग्रहण,नए जीन प्ररूपों के प्रजनन,वृद्धि नियामकों केइस्तेमाल,सस्य तकनीकों के मानकीकरण(इनमें कटाई-छंटाई, मूल-वृन्त,जल एवं पोषकतत्वों की आवश्यकता आदि विषय भी शामिल हैं) और कटाई उपरांत प्रौद्योगिकी पर वर्ष 1956 मं अनुसंधान कार्य शुरू किया गया। प्रचलन में लाने के लिए अंगूर की अनेक किस्में विकसित की गई। इन सभी किस्मों की व्यावसायिक खेती की जा रही है, तथापि इन तीनों में ही इस क्षेत्र की आदर्श किस्म बनने की दृष्टि से कोई नकोई कमी है। इसे ध्यान में रखते हुए अगेती परिपक्वता,अच्छे सरस फल के साथ उच्च पैदावार के गुणों से युक्त जीनप्ररूपों के विकास का एक सघन प्रजननकार्यक्रम प्रारंभ किया गया। भा.कृ.अं.सं. में दो सफल हाइब्रिड नामतः पूसा उर्वशी एवं पूसा नवरंग विकसित किएगए और उन्हें कई सालों तक बहु-स्थानक परीक्षणों के उपरांत 1996-97 में जारी किया गया। उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में बुवाई के लिए उपयुक्त अंगूर की किस्मों के मुखय गुण नीचे दिए गए हैं:भा.कृ.अ.सं. द्वारा जारी /सिफारिश की गई किस्मेंब्यूटी सीडलेसमूलतः कैलिफोर्निया (यूएसए) की किस्म ब्यूटी सीडलेस एक जल्दी पकने वाला किस्म है। इसके गुच्छे शंक्वाकार व छाटे से मध्यम आकार के होते हैं। इसके दाने सरस, छोटे, गोल, गहरे लसल से लगभग काले रंग के होते है। फलों का गूदा मुलायम और हल्का सा अम्लीय होता है। फलों में एक-दो खाली व अप्पविकसित खोखले बीज हाते हैं तथा छिलका मध्यम मोटा होता है। इस किस्म में कुल घुलनशील शर्करा (टीएसएस) 18-19 प्रतिशत है। यह किस्म मध्य जून तक पकती है। तत्काल खाने की दृष्टि से यह एक उपयुक्त किस्म है।पर्लेटमूलतः कैलिफोर्निया की किस्म पर्लेट कोउगाने की सिफारिश उत्तर भारत की परिस्थितियों के लिए की जाती है। यह शीघ्र पकने वाली, मध्यम प्रबल, बीजरहित तथा मीठे स्वाद वाली किस्म है। इसके गुच्छे मध्यम से लंबे, खंक्वाकार और गठेहुए होते हैं। इसका फल सरस, हरा, मुलायम गूदे और पतल छिलके वाला होता है। इस किस्म में कुल घुलनशील शर्करा (टीएसएस)20-22 प्रतिशत है। फसल के आधे पक जाने पर जिब्रेलिक अम्ल (30 प्रति दस लक्षांश) GA3 का छिड़काव बहुत लाभदायक होता है। यह किस्म जून के दूसरे सप्ताह से पकना शुरू हो जाती है।पूसा सीडलेसलोकप्रिय किस्म पूसा सीडलेस की खेती उत्तरी भार में की जाती है। यह जून के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी लताएं समजबूत होती हैं और उनमें मध्यम से लंबे आकार के गठीले गुच्छे आते हैं। इसके दाने सरस, छोटे, बीज रहित और हरापन लिए हुए पीले रंग के हाते हैं। गूदा मुलायम और मीठा हाता हैं जिसमें कुल घुलनशील शर्करा (टी एस एस) 22 प्रतिशत है।पूसा उर्वशी (हर X ब्यूटी सीडलेस)पूसा उर्वशी अंगूर की एक शीघ्र पकने वाली हाइब्रिड किस्म है जिसके फल तने के आधरा पर लगने शुरू हो जाते हैं। इसकेगुच्छे कम गठीले (खुले) तथा आकार में मध्यम हाते हैं जिनमें मध्यम आकार के, अंडाकार,हरापन लिए हुए पीले बीज रहित अंगूर लगते है। यह किस्म ताजा खाने तथा किशमिश बनाने हेतु उपयुक्त हैं। इस हाइब्रिड में कुल घुलनशील शर्करा (टी एस एस) का स्तर 20-22 प्रतिशत है और यह बीमारियों का प्रतिरोधी है तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों मंध जहां मानसून सेपहले छुट-पुट वर्षा की समस्याहै, उगाए जाने के लिए अच्छी है।पूसा नवरंग (मेडीलाइन एंजीवाइन X रूबीरेड)पूसा नवरंग एक टंनटुरियर हाइब्रिड किस्म है जो जल्दी पकने वाली है। इसमें फल बेल में नीचे की ओर लगते है। इसके गुच्छे कम गठीले, मघ्यम आकर के होते हैं। तथा अंगूर मध्यम गोलाकार होते हैं। यह किस्म जूस तथा रंगीन शराब के लिए अच्छी है। यह हाइब्रिड ऐन्थ्रक्नोजबीमारी का प्रतिरोधी है तथा उपोष्ण-कटिबन्धीय क्षेत्रों में जहां मानसून से पहले छुट-पुट वर्षा की समस्या है, उगाए जाने के लिए अच्छा है।अंगूर की पूसा किस्मों की लोकप्रियतापूसा उर्वशी एवं पूसा नवरंग दोनों किस्मों के जारी होने के बाद से ही अंगूर की खेती करने वाले किसानों को आकर्षित किया है। जननद्रव्य विनिमय एवंवितरण के तहत, राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र, पुणे, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना तथा चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर सहित विभिन्न अनुसंधान केन्द्रों को अंगूर की बेलों की कलमों की आपूर्ति की गयी। इसी प्रकार सिनौली, मेरठ (उ. प्र.); सांगली (हि.प्र.); हिन्दौर (म. प्र.) तथा रायपुर के समीप राजनंद गांव (छत्तीसगढ़); रायगढ़ (उड़ीसा) आदि के प्रगतिशील किसानों को अंगूर की कलमें उपलब्ध कराई गई जहां इनका प्रदर्शन बेहतर रहा। ऊपर बताए गए बहुत से क्षेत्र अंगूर की खेती के लिए परंपरागतक्षेत्र नहीं माने जाते। अतः पूसा अंगूर किस्मों को लोकप्रिय बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में अंगूर की खेती की संभावना तलाशने के उद्‌देश्य से प्रगतिशील किसानों की मदद से एक सहयोगीअनुसंधान कार्यक्रम की शुरूआत की गयी।गैर-परंपरागत क्षेत्रों में अंगूरकी सफल खेती की शुरूआतइस विवरण में छत्तीसगढ़ में अंगूर की खेती की सफलतम तकनीकों पर प्रकाश डाला गया है। संस्थान ने रायपुर जिले के राजनंद  गांव के निवासी एवं प्रगतिशील किसान डॉ. बी. एन पालीवाल के साथ सक्रिय सम्पर्क स्थापित किया। पारम्भ में उनकेभालूकोन्हा गांव स्थित फार्म हाउस पर थॉमसन सीडलेस, पर्लेट, हिमरोद, सोनाका, तास-ए-गणेश आदि जैसी आठ किस्मों के साथ पूसा नवरंग और पूसा उर्वसी दोनों की 50-50 कलमें लगाई गई। साथ ही अंगूर की खेती की पूरी सस्य विधियां उपलब्ध कराईगई। वर्ष 1999 में फार्म हाउस की अंगूर लताओं में फल आने के उपरांत छत्तीसगढ़ जैसे अंगूर की खेती वाले गैर-परंपरागत क्षेत्र में अंगूर की सफलखेती एक  राष्ट्रीय समाचार बन गई। भा. कृ. अं. सं. के वैज्ञानिकों के सक्रिय परामर्श और खेत दौरों के परिणामस्वरूप अंगूर की खेती की विभिन्न सस्य क्रियाओं का मानकीकरण किया गया। इस सफलता से समग्र क्षेत्र की आंखें खोल दीं तथा क्षेत्र के अन्य किसानों को भी पूसा नवरंग और पूसा उर्वशी पौधों की हाइब्रिड कलमों की आपूर्ति की गई।वर्तमान में, लगभग 15 हैक्टर क्षेत्र में पूरी तरह से पूसा अंगूर की खेती की जाती है। इस सफलता ने राज्य के किसानों का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया और राज्य कृषि विभाग ने रायपुर को छतीसगढ़ का अंगूर की खेती वाला जिला घोषित कर दिया है। पिछले कुछ वर्षो के दौरान स्थानीय गैर सरकारी संगठन, पालीवाल ग्रेप रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्‌यूट, भालूकोना, राजनन्द गांव के प्रयासों से अंगूर की खेती का दायरा पड़ोसी जिलों नामतः दुर्ग और कावर्धा तकबढ़ा। वर्तमान में अंगूर की व्यावसायिक खेती करने वाले 15 से अधिक प्रगतिशील किसानों ने एक सहकारी समिति का गठन किया है।लवण सहिष्णु मूलवृंतों का उपयोग, ड्रिप सिंचाई आदि जैसी अंगूर की खेती की नई तकनीकें काफी लोकप्रिय हो रही है। डॉ. पालीवाल के फार्म हाउस में प्राप्त नतीजे उत्साहवर्धक हैं। समुचित छंटाई तकनीक के साथ मूलवृंत के प्रयोग से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई है। डॉगरिज मूलवृंत के इस्तेमाल से पूसा उर्वशी और पूसा नवरंग किस्माकें के अंगूरों के आकार और गुणवत्ता दोनों मेंउल्लेखनीय सुधार पाया गया है। क्षेत्र में अंगूर की खेती से प्राप्त लागत : लाभ आकलन से पता चलता है कि ताजे अंगूरों के उत्पादन में जहां प्रति एकड़1,0,000 रूपये का लाभ है, वहीं किशमिश उत्पादन में यह लाभ बढ़कर 1,50,000 रूपये प्रति एकड़ हो जाता है।स्त्रोत-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।मृदा एवं जलवायु संबंधी आवश्यकताएंइस क्षेत्र के लिए मानकीकृत और अनुशंसित अंगूर उत्पादन प्रौद्योगिकी नीचे दी गई हैःअंगूर की खेती के लिए गर्म, शुष्क व वर्षा रहित गर्मी तथा अति ठंड वाले सर्दी के मौसमों की आवश्यकता होती है। मई -जून के दौरान फलों के पकते समय वर्षा का होना नुकसान दायक है। इससे फल की मिठास में कमी आती है, फल असमान रूप से पकता है और चटक जाता है। अंगूर की खेती  के लिए अच्छी जल-निकासी वाली मिट्‌टी बेहतर मानी जाती है। अंगूर की खेती अलग-अलग प्रकार की ऐसी मिट्‌टी मेकी जा सकती है जिसमें फर्टिलाइजर का पर्याप्त उपयोग हुआ हो और उसकी अच्छी देखभाल की गई हो। रेतीली तथा बजरीदार मिट्‌टी में भी अंगूर की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की परिस्थतियों के तहत अंगूर की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्‌टयों यथा लाल बजरी, काली मिट्‌टी, कंकड़ीली तथा कठोर सतह वाले क्षेत्रों में भी संभव है। हालांकि इस क्षेत्र में लाल बजरी और यहां तक कि रेतीली मिट्‌टी की बहुतायत है, फिर भी परिणामों से पता चलता है कि पर्याप्त उर्वरकों और सिंचाई के प्रयोग से यहां अंगूर की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है। सामान्तः 2.5 मीटर गहराई तक की मिट्‌टीआदर्श मानी जाती है। इसका pH मान 6.5 से 8 होना चाहिए। विनिमय शील सोडियम की दर 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। किसानों को 0.3 प्रतिशत अथवा अधिक अवणता वाली मिट्‌टी में अंगूर की खेती से बचना चाहिए। समस्याग्रस्त क्षेत्रों समें अंगूर की खेती के लिए साल्ट क्रीक, डॉगरिज ओर 1613 जैसे लवण सहिष्णु मूलवृंतों के प्रयोग का सुझाव दिया जाता है जिनका प्रयोग उपरोक्त किस्मों के मूलवृंत रोपण के लिए किया जा सकता है।प्रवर्धनप्रूनिंग वुड से ली गई एक वर्षीय परिपक्व केन से तने की कटिंग कर अंगूर का प्रवर्धन आसानी से किया जा सकता है। प्रत्येक कटिंग पैंसिल जितनी मोटी व 20-25 सें. मी. लंबी होनी चाहिए जिसमें3-4 गांठे हों। इस प्रकार तैयार की गई कलम को या तो क्यारियों में अथवा मेंड़ों पर 45 डिग्री के कोण पर रोपा जाता है। अभी हाल ही में, वेज ग्राफ्टिंग का प्रयोग करते हुए फरवरी -मार्च (सुशुप्त कलियों में अंकुरण से पूर्व) तथा जुलाई-अगस्त (वर्षा उपरान्त) के दौरान एक वर्ष पुरानी मूलवृंत की स्व-स्थाने (इन सिटू) (मूल अवस्था में) ग्राफ्टिंग की गयी है।रोपणबेलों के बीच उचित दूरी रखने के लिए रोपण से पहले किसानों को एक ले-आउट प्लान तैयार कर लेना चाहिए। सामान्य तौर पर यह दूरी इस प्रकार रखी जाती है - हैड सिस्टम में 2 मी. ग 2 मी.; ट्रेलिस सिस्टम में 3 मी. ग 3 मी.; बॉवर सिस्टम में 4 मी. ग 4 मी.; Y सिस्टम में 3 मी. ग 4 मी.।नवम्बर-दिसंबर के दौरान 75 सें मी. ग 75 सें. मी. आकार के गड्‌ढे खोदकर उनमें गोबर की खाद और 1000 ग्राम नीम की खली को मिट्‌टी के  साथ 1:1 अनुपात में मिला देना चाहिए। अच्छी तरह मिलानेके उपरांत इसमें  एक कि. ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट और 500 ग्रा. सल्फेट ऑफ पोटाश मिला देना चाहिए। दीमकों द्वारा संक्रमित क्षेत्रों में गड्ढों को 30-50 लीटर जल में 0.2 प्रतिशत क्लोरापइरीफॉस मिलाकर पानी से भर देना चाहिए। एक भारी सिंचाई करके मिट्‌टी कोठीक से बैठ जाने लिए छोड़ देना चाहिए। जनवरी के अंतिम सप्ताह में शाम के समय प्रत्येक गड्‌ढे में एक वर्षीय जड़ कटिंग का रोपण किया जाता है। एक पखवाड़े के बाद बेल कांट-छांट करके एक मजबूत व परिपक्व तने के रूप में रहने दिया जाता है। ऐसी बेलों का रोपण समुचित अंतराल पर किया जाना चाहिए।बेलों की स्थाई (ट्रेनिंग)यद्यपि उपोष्ण क्षेत्र के लिए बेल के आधार पर फल देने वाली किस्में अधिक उपयुक्त है लेकिन ऐसे क्षेत्र में पुष्ट बेल वाली किस्में उगाई जाती है।हैड सिस्टम :यह सिस्टम सबसे सस्ता है क्योंकि इसमेंकम निवेश की जरूरत होती है। अतः यह अल्पसंसाधन वाले किसानों के लिए उपयुक्त है। इस प्रणली के तहत, बेलों को एकल तने के रूप में 1.2 मी. ऊंचाई तक बढ़ाया जाता है और उनमें विभिन्न दिशाओं में अच्छी तरह से फैली हुई चार से छः शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है। बाद में ये शाखाएं लकड़ी की भांति काष्ठीय बन जाती हैं जिनमें फलों के 8-10 गुच्छे लगते हैं। छंटाई करने पर अगले वर्ष के लिए नई शाखाएं निकलती हैं। सामान्यतः अंगूर कीखेती के लिए कुछ अन्य प्रणालियों को भी आजमाया जा सकता है। जिनमें प्रमुख हैःट्रेलिस सिस्टम :हालांकि यह थोड़ी खर्चीली है, फिर भी इसेसभी अर्ध-प्रबल किस्मों हेतु अपनया जा सकता है। पौधे 3 मी. ग् 3 मी. दूरी पर रोपे जाते हैं तथा लता की शाखाओं को तारपर 2 स्तरों पर फैलने दिया जाता है। लोहे के खंभों की मदद से तार क्षैतिज बांधे जाते हैं, पहला भू-सतह से 3/4मीटर की ऊंचाई पर तथा दूसरा पहले से25 सें. मी. ऊपर रखा जाता है।शाखाओं को मुख्य तने के दोनों और फैलने दिया जाता है।बॉवर, परगोला अथवा पंडाल सिस्टम :पौधों को 2 मी. की ऊंचाई तक एकल तने के रूप में बढ़ने दिया जाता है तथा उसके उपरांत लता को मंडप के ऊपर सभी दिशाओं में फैलने दिया जाता है। यह लता मंडप 12 गेज वाली तारो से जाली के रूप में बुना जाता है। और इस जाली को एंगल आरनपत्थरों या लकड़ी के खंभों के सहारे फैलाया जाता है। बेल की मुखयटहनियों परफल देने वाली शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है और इनकी कटाई-छटाई प्रति वर्ष की जाती है।‘Y’ ट्रेलिस सिस्टम :अंगूर की बेलों को विभाजित कर खुली (केनोपी) परबढ़ने दिया जाता है। ‘Y’ के आकार वाले एंगल ट्रेलिस पर 120 से 130सें.मी. की ऊंचाई पर बांधे गए तारों पर फलदार शाखाओं को बढ़ने दिया जाता है। सामन्यतः एंगल 100-110 डिग्री कोण का होता है जिसकी शाखाएं 90-120से. मी. तकफैली होती है। इस प्रणाली की सबसे लाभदायक बात यह है कि इसमें फलगुच्छों को सीधी तेज धूप से बचाया जा सकता है।अंगूर की बेलों की छंटाईउत्तरी भारत में, मध्य दिसंबर से मध्य जनवरी के दौरान जबकि बेलें निष्क्रिय अवस्था में होती हैं, मध्य बेल की कटाई-छंटाई प्रारंभ की जा सकती है लेकिन मध्य भारत (यथा छत्तीसगढ़) में दोहरी कटाई-छंटाई भी की जा सकती है। फल दने वाली बेलों की छंटाई सामान्यतः रोपण के 2-3 वर्ष पश्चात बेल को वांछित आकृति देने और अपनाई जा रही प्रणाली के अनुसार की जाती है। चूंकि अंगूर के गुच्छे प्रत्येक मौसम में बेल से फूटनेवाली नई टहनियों पर फलते हैं, अतः पिछलें वर्ष कीटहनियों की निश्चित लंबाई तक छंटाई करना महत्वपूर्ण होता है। किस गांठ तक बेल को छांटा जाए यह किस्म की प्रबलता पर निर्भर करता है।
छंटाई के उपरांत बेलो पर 2.2 प्रतिशत ब्लीटॉक्स की छिड़काव करना चाहिए। पौधे के आधार पर दिखाई पड़ने वाले सभी अंकुरों को हाथ से हटा देना चाहिए।खाद एवं उर्वरकों का प्रयोगयुवा एवं फल वहन करने वाली बेलों को पोषक तत्व प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है। सामान्यतः बेलों को पोषक तत्वों कीआधी खुराक मिट्‌टी के माध्यम से तथा शेष आधी पत्तियों पर छिड़काव करके दिए जाने की सिफारिश की जाती है। विशेषकर नव विकसित पत्तियों पर सुबह के समय यूरिया (2 प्रतिशत वाले घोल) के छिड़काव की सिफारिश की जाती है। प्रति पौधा 25 कि. ग्रा. की दर से अच्छी तरह से सड़े हुए गोबर की खाद को फरवरी माह में मिट्‌टी में मिलाया जाता है। उसके उपरांत फरवरीमाह में ही  बेलों की छंटाई के तुरंत बाद प्रत्येक बेल में 200 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट, 250  ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 250 ग्रा. अमोनियम सल्फेट के प्रयोग की सिफारिश की जाती है। फल लगना शुरू हाने के पश्चात अप्रैल माह में 200  ग्रा. पोटेशियम सल्फेट की दूसरी खुराक का प्रयोग किया जाता है। आयरन एवं जिंक जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए इनका 0.2 प्रतिशत की दर से छिड़काव किया जाता है।उपोष्ण- कटिबंधीय फलदार बेलों में उर्वरीकरण की अनुसूचीपोषक तत्व (कि.   ग्रा./है.)माहफरवरीमार्चअप्रैलमईनाइट्रोजन(N)250350-1पोटेशियम (P2O5)800400--फास्फोरस(K2O)-200200200सिंचाईनई रोपी गई बेलों को रोपण के पश्चात्‌ सींचा जाता है। खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग के बाद भी सिंचाई की जानी चाहिए। यह तब और भी महत्वपूर्ण है जब फलों का विकास हो रहा हो। जैसे-जैसे फलों के रंग में परिवर्तन आने से परिपक्वता का पता चले सिंचाई की आवृत्ति कम की जा सकती है, ताकि फलों में अधिक शर्करा संचित की जा सके। यदि वर्षा न हो तो फलों की तुड़ाई के उपरांत भी सिंचाई जारी रखी जा सकती है। निष्क्रय अवधि (नवम्बर से जनवरी) के दौरान किसी प्रकार की सिंचाई की आवश्यकता नहीं है। ड्रिप सिंचाई के भी आशातीत नतीजे प्राप्त हुए हैं। शून्य (0) से 0.25 बार के मृदा नमी क्षेत्र में बंसत तथा ग्रीष्म में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।बसंत एवं ग्रीष्म में प्रति बेल 3.5 ली.जल क्षमता वाली 15 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।स्त्रोत-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।फलों की गुणवत्ता-महत्वपूर्ण दिशानिर्देशपादप जैव विनियामकों एवं सस्यक्रियाओं द्वारा फलों की क्वालिटी में सुधार।भा. कृ. अ. सं. द्वारा मानसूनी वर्षा प्रारंभ हाने से पहले ही अंगूरों की अगेती तुड़ाई कर लेने की तकनीक विकसित की गयी है। जनवरी के प्रथम सप्ताह में छंटाई के तुरन्त पश्चात अंगूर बेलों परडार्मेक्स अथवा डॉरब्रेक (30 मि.ली. काएक छिड़काव किया जाता है। इस उपचार से फल2 से 3 सप्ताह पूर्व ही कलियां खिल जाती है तथा अंगूर पक जाते है।लंबे अंगूर प्राप्त करने के लिए पुष्पगुच्छों के आधा खिलने के समय उन्हें जिब्रेलिक एसिड में डुबोने सिफारिश की जाती है। ब्यूटी सीडलेस किस्म 45 पीपीएम वाले जीए3 के प्रति, तथा पर्लेट, पूसा उर्वशी और पूसा सीडलेसकिस्में 25-30 पीपीएम वाले जीए3 के प्रति इस संबध में अनुकूल प्रतिक्रिया प्रदर्शित करती हैं।फल के रंग और मिठास की दृष्टि से अंगूर की क्वालिटी में सुधार लाने के साथ-साथ फलों को शीघ्र पकाने हेतु अंगूरों को मटर के दानों के बराबर के आकार में बनाएगए घोल में डुबोया जा सकता है।इसके अतिरिक्त, फल क्वालिटी में सुधार लाने के लिए मुखय तने की गर्डलिंग और गुच्छों में अंगूरों की सघनता कम करने जैसी क्रियाएं (थिनिंग) भी लाभदायक पाईगई है। फल आने के 4-5 दिन पश्चात गर्डलिंग चाकू की मदद से तने के चारों ओर भू-सतह से 30 सें. मी. ऊंचाई तक पतली छाल (0.5-1.0 सें. मी.) को गोलाकार हटा दिया जाता है। कैंची अथवा ब्रशिंग द्वारा पुष्पगुच्छ के एक तरफ से फलों को पूरी तरह हटाकर गुच्छों की थिनिंग की जाती है। अकेले गर्डलिंग करने से फल के भार में वृद्धि की जा सकती है लेकिन थिनिंग (छरहरापन) के साथ गर्डलिंग करनेसे अंगूर की मिठास (टीएसएस) में 2-3 प्रतिशत वृद्धि होती है और उन्हें एक सप्ताह अगेती पकाया जा सकता है।खाद कब देंछंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधीमात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाईकरें। खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें।कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधारअच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर केबीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है।फसल निर्धारणफसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवंपकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैडपद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें।छल्ला विधिइस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता,उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौड़ी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए।नाशीजीवों एवं बीमारियों का नियंत्रणपत्ती लपेटक इल्लियां पत्ती के किनारोंको मध्यधारी की ओर लपेट देती है। ये इल्लियां पत्तियों की निचली बाह्‌य सतह पर पलती हैं। इस नाशीजीव के नियंत्रण हेतु 2 मि. ली. मेलाथियॉन अथवाडाइमेथोएट को प्रति लीटर पानी में 2 मि.ली. की दर से डाइमेथोएट अथवा  मेलाथियॉनका छिड़काव करने से लीफ हॉपर (पात-फुदके)को भी नियंत्रित किया जा सकता है। अंगूर की बेलों पर शल्क (स्केल) भी दिखाई पड़ते हैं जिन्हें प्रति ली. पानी में 1 मि. ली. डाइजिनॉन मिलाकर बेलों  की छंटाई के तुरंत बाद छिड़कने से सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है। दीमकों के हमले से बचने के लिए 15-20 दिन के  अन्तराल पर एक बार 5 मि. ली. क्लोरोपायरीफॉस को प्रति लिटर जल में घोलकर तने पर छिड़कना तथा मिट्‌टी को इस घोल से भिगोना लाभदायक है।सफ़ेद चूर्णी रोगअन्य फफूंद बीमारियों की अपेक्षा यह शुष्क जलवायु में अधिक फैलाती है। प्रायः पत्तों, शाखाओं, एवं फलों पर सफ़ेद चूर्णी दाग देखे जा सकते हैं। ये दाग धीरे - धीरे पुरे पत्तों एवं फलों पर फ़ैल जाते हैं। जिसके कारण फल गिर सकते हैं या देर से पकते हैं। इसके नियंत्रण के लिए 0.2% घुलनशील गंधक, या0.1% कैरोथेन के दो छिडकाव 10 - 15 दिन के अंतराल पर करें।उपोष्ण क्षेत्र में अंगूर की फसल प्रायः चूर्णी फफूंद तथा एथ्रेक्नोज केप्रकोप से बच जाती है क्योंकि इनका संक्रमण भारी वर्षा हाने पर ही देखने में आया है। जून-सितम्बर के दौरान 1-1 पखवाड़े के अन्तराल पर 3 ग्रा. ब्लीटॉक्स अथवा बेविस्टिन को प्रति लीटर जल में मिलाकर बने घोल का छिड़काव करने से इन बीमारियों को नियंत्रण में रखा जा सकता है।कीट*.थ्रिप्स, चैफर, बीटल एवं चिडिया, पक्षी अंगूर को हानि पहुंचाते हैं। थ्रिप्स का प्रकोप मार्च से अक्तूबर तक रहता है। ये पत्तियों, शाखाओं, एवं फलों का रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 500 मिली. मेलाथियान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।*.चैफर बीटल कीट रात में पत्तों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करता है, वर्षाकाल में 10 दिन के अंतराल पर 10 % बी.एच.सी. पावडर बुरक देना इस कीट के नियंत्रण हेतु लाभदायक पाया गया है।*.चिड़िया अंगूर को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। फल पकने के समय चिडिया गुच्छे खा जाती है। अतः घर से आंगन में लगी बेलके गुच्छों को हरे रंग की मलमल की थैलियों से ढक देना चाहिए। बड़े - बड़े बगीचों में नाइलोन के जाल से ढक दें , ढोल बजाकर चिडियों से छुटकारा पाया जा सकता है।
्त्रोत-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।फलों की तुड़ाईगुच्छों को पूरी तरह से पकने पर तोड़ना चाहिए। फलों का पकना वांछित टी एस एस व अम्लता के अनुपात से जाना जा सकता है जोविभिन्न किस्मों में 25-35 के बीच अलग-अलग होती है (पूसा सीडलेस में 29.24)। पूसा किस्में जून के प्रथम सप्ताह में पकना आरंभ कर देती हैं। अंगूर के गुच्छों को तोड़कर प्लास्टिक की ट्रे में रखना चाहिए। गुच्छों को एक के ऊपर एक करके नहीं रखना चाहिए। गुच्छों से खेत की गर्मी को कम करने के लिए उन्हें कुछ समय तक छाया में रखना चाहिए। इसके उपरांत खराब अंगूरों को गुच्छों से हटा देना चाहिए। उत्पाद को लहरदार (कारूगेटिड) फाइबर बोर्ड बक्सोंमें पैक करके स्थानिय अथवा दूरवर्ती बाजार में भेजा जा सकता है।भंडारण एवं उपयोगअंगूरों को 80-90 प्रतिशत आर्द्रता एवं शून्य डिग्री तापमान पर 4 सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है। जून माह में अंगूरों का अच्छा दाम मिलता है किशमिश और शराब बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर उसे अमल में लाकर भी लाभ कमाया जा सकता है।सस्यक्रियाओं का कैलेण्डरउपोष्ण कटिबंधीय अंगूर की खेती की सस्यक्रियाओं का कैलेण्डरजनवरी के प्रथम से द्वितीय सप्ताह तकपरिपक्व अंगूर की कटाई-छंटाई एवं नवविकसित बेलोंक की संधाई (ट्रेनिंग)। प्रत्येक युवा एवं परिपक्व बेल में 25 कि. ग्रा. अच्छी तरह से सड़ी हुए घूरे की खाद का प्रयोग कर थियोयूरिया अथवा डॉर्मेक्स का इस्तेमाल।जनवरी के तीसरे से चौथे सप्ताह तकअंगूर की प्रत्येक बेल में 250 ग्रा.अमोनियम सल्फेट और 250 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट द्वारा उर्वरीकरण। अप्रैल का प्रथम सप्ताह : सरस फल विकास और बेहतर क्वालिटी के लिए प्रति फलदार बेल के लिए 200 ग्रा. पोटेशियम सल्फेट का प्रयोग।अप्रैल के दूसरे सप्ताह से जून के अंत तकएक दिन के अन्तराल पर सिंचाई (परिपक्वता से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई को रोक देना चाहिए)। फलों की तुड़ाई के तुरंत पश्चात्‌ एंथ्रेक्नोज के प्रकोपसे बचने के लिए प्रति लीटर जल में 3 ग्रा. ब्लीटॉक्स/बैविस्टिन के घोल का छिड़काव।जुलाई-अगस्त-सितंबरफलों की तुड़ाई के तुरंत बाद सितम्बर तक 15-20दिन के अंतराल पर प्रति लीटर जल में 3 ग्रा. ब्लीटॉक्स के घोल का छिड़काव।नवम्बर-दिसम्बरप्रति लीटर 3 ग्रा. ब्लीटाक्स के घोल काजल के साथ अन्तिम छिड़काव।मान्यताभा. कृ.अ. सं. के प्रधान वैज्ञानिक एवं अंगूर प्रजनक स्वर्गीय डॉ, पी.सी. जिंदलतथा छत्तीसगढ़ के प्रगतिशील किसान डॉ. बी. एन.पालीवाल के उललेखनीय प्रयासों को राज्य सरकार द्वारा मान्यता दी गई है। सरकार के अनेक गण्यमान्य पदाधिकारियों ने प्रायोगिक फार्म का दौरा किया। डॉ. जिंदल एवं डॉ. पॉलीवाल के योगदान को मान्यता प्रदान करते हुए वर्ष 2003 में राज्य कृषि विभाग एवं जिला क्लेक्ट्रेट, रायपुर द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित राज्य बागवानी प्रदर्शनी में छत्तीसगढ़ राज्य के कृषि एवं उद्योग मंत्री ने डॉ. जिंदल एवं डॉ. पॉलीवाल को रजत पटि्‌टका व प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया। इस सफलता से उत्साहित होकर पड़ोसी राज्य उड़ीसा के सीमावर्ती जिलों के किसानों ने भी उपोष्ण कटिबंधीय अंगूर की खेती करना प्रारंभ कर दिया है। 'द ग्रेप ग्रोअर्स कॉआपरेटिव ऑफ छत्तीसगढ़' द्वारा अब अपने उत्पादों के प्रसंस्करण हेतु किशमिश तथा शराब बनाने का संयंत्र स्थापित करने की योजना तैयार की जा रही है।अंगूर से किशमिश बनाने की विधिकिशमिश बनाने के लिए अंगूर की ऐसी किस्म का चयन किया जाता है जिसमें कम सेकम 20 फीसदी मिठास हो। किशमिश को तैयारकरने की तीन विधियां हैं- पहली- प्राकृतिक प्रक्रिया, दूसरी-गंधक प्रक्रिया और तीसरी-कृत्रिम प्रक्रिया। पहली प्राकृतिक प्रक्रिया में अंगूर को गुच्छों से तोड़ने के बाद सुखाने के लिए 9क् सेंटीमीटर लंबी और 60 सेंटीमीटर चौड़ी ट्रे या60 सेंटीमीटर लंबी और 45 सेंटीमीटर चौड़ी ट्रे, जिसके नीचे प्लाई-वुड या लकड़ी की पट्टियां लगी हुई हों, में अंगूरों को अच्छी तरह फैला दें। फिर तेज धूप में 6-7 दिन तक रखें। अंगूरों को प्रतिदिन उलटते-पलटते रहें। इसके पश्चात ट्रे को छायादार स्थान पर रख दें, जहां अच्छी तरह हवा लगे सके। छायादार स्थान में सुखाने से किशमिश मुलायम रहती है और इसका इसका रंग भी खराब नहीं होता है। तैयार किशमिश में 15 फीसदी नमी रहनी चाहिए। गंधक प्रक्रिया से किशमिश बनाने पर उसका रंगबिल्कुल नहीं बदलता है। इसका मतलब है कि इस प्रक्रिया से बनी किशमिश हरी रहती है। धूप में सुखाने से किशमिश का रंग थोड़ा भूरा हो जाता है।इसे रोकने के लिए गंधक के धुएं का उपयोगकिया जाता है। इस प्रक्रिया के लिए ताजे अंगूरों को गंधक के धुएं से भर कक्ष में लकड़ी की ट्रे पर किशमिश बिछा देते हैं। कमर के भीतर गंधक के धुएं के फैलने का पर्याप्त इंतजाम होना चाहिए। अंगूरों पर तेल की परत भी चढ़ाई जा सकतीहै। इसके लिए नारियल या मूंगफली तेल का उपयोग किया जाता है। तेल लगाने से किशमिश चमकीली हो जाती है और इसे लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है। कृत्रिम प्रक्रिया से किशमिश बनाने के लिए माइक्रोवेव किरणों से अंगूरों को सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया से अंगूरमें मौजूद पानी भाप बनकर उड़ जाता है औरकिशशि की गुणवत्ता भी बनी रहती है। इस प्रक्रिया से 90 फीसदी समय की बचत होतीहै। अंगूर एक समान सूखता है, जिससे फल का रंग, खुशबू व पोषक तत्व ताजे फल जैसे बने रहते हैं। तैयार किशमिश को शीशे के मर्तबान या पॉलीथीन की थैलियों में बंदकरके किसी साफ सुथर हवादार स्थान पर रखना चाहिए।अंगूर का शरबतठीक से सफाई करने के बाद अंगूर के बराबरमात्रा में पानी डालकर उसे 10 मिनट तक पका लें। यह ध्यान रहे कि पानी का तापमान 60-70 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। उबले अंगूरों को छलनी में रगड़कर रस निकाल लें। बड़े पैमाने पर शरबत तैयार करना हो, तब बाल्टी के तले में छोटे छेद करके भी उबले अंगूरों से निकाला जा सकता है। एक अलग बर्तन में चाशनी तैयार करके उसमें सिट्रिक एसिड डाल दें। प्रति लीटर चाशनी में 8-10 ग्राम सिट्रिक एसिड डालना चाहिए। इसके बाद इसे डालकर ठंडी होने। बाद में अंगूर से निकाला रस मिला लें। तैयार रस में प्रति लीटर एक ग्राम के हिसाब से पोटेशियम मेटाबाइ सल्फाइट मिलाएं। पोटेशियम मेटाबाइ सल्फाइट पूर शरबत मेंएकसाथ मिलने के बजाय छोटी कटोरी में पहले मिलाए और बाद में उसे पूर शरबत मेंमिलाएं। इस शरबत को साफ बोतल में भरकर ठंडे स्थान में रखें। अंगूरों के बजाय इससे बने उत्पादों का बाजार में कहीं बेहतर दाम मिलेगा। एक फायदा यह भी है किउत्पादकों पर ताजे अंगूर बेचने का दबावभी नहीं होगा। इससे उन्हें कम दाम पर अंगूर नहीं बेचने होंगे।स्त्रोत-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान।भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार कृषि मंत्रालय अधीन कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग एक स्वायत्त संगठन।                                        अंगूर कीआधुनिक खेतीअंगूर संसार के उपोष्ण कटिबंध के फलों में विशेष महत्व रखता है। हमारे देश में लगभग 620 ई.पूर्व ही उष्ण कटिबंधीयक्षेत्रों में अंगूर की व्यवसायिक खेतीएक लाभकारी उद्यम के रूप में विकसित हो गई थी लेकिन उत्तरी भारत में व्यवसायिकउत्पादन धीरे - धीरे बहुत देर से शुरू हुआ। आज अंगूर ने उत्तर भारत में भी एक महत्वपूर्ण फल के रूप में अपना स्थान बना लिया है और इन क्षेत्रों में इसका क्षेत्रफल काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है। उपयोग अंगूर एक स्वादिष्ट फल है। भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं। इससे किशमिश, रस एवं मदिरा भी बनाई जाती है। मिट्टी एवं जलवायु अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है। अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियोंमें सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाईगयी है। अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है। अंगूर लवणता केप्रति कुछ हद तक सहिष्णु है। जलवायु का फल के विकास तथा पके हुए अंगूर की बनावटऔर गुणों पर काफी असर पड़ता है। इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतू अनुकूल रहती है। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत हीहानिकारक है। इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों की सिफारिश की जाती है। किस्में उत्तर भारत में लगाई जाने वाली कुछ किस्मों की विशेषताएं नीचे दी जा रही हैं। परलेट यह उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों में से एक है। इसकी बेल अधिक फलदायी तथा ओजस्वी होती है। गुच्छे माध्यम, बड़े तथा गठीले होते हैं एवं फलसफेदी लिए हरे तथा गोलाकार होते हैं। फलों में 18 - 19 तक घुलनशील ठोस पदार्थ होते हैं। गुच्छों में छोटे - छोटे अविकसित फलों का होना इस किस्म की मुख्य समस्या है। ब्यूटी सीडलेस यह वर्षा के आगमन से पूर्व मई के अंत तक पकने वाली किस्म है गुच्छे मध्यम से बड़े लम्बे तथा गठीले होते हैं। फल मध्यम आकर के गोलाकार बीज रहित एवं काले होते हैं। जिनमे लगभग 17 - 18 घुलनशील ठोस तत्त्व पाए जाते हैं। पूसा सीडलेस इस किस्म के कई गुण 'थाम्पसन सीडलेस' किस्म से मेल खाते हैं। यह जून के तीसरेसप्ताह तक पकना शुरू होती है। गुच्छे मध्यम, लम्बे, बेलनाकार सुगन्धयुक्त एवं गठे हुए होते हैं। फल छोटे एवं अंडाकार होते हैं। पकने पर हरे पीले सुनहरे हो जाते हैं। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश बनाने के लिए उपयुक्त है। पूसा नवरंग यह संकर किस्म भी हाल ही में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित की गयी है। यह शीघ्र पकने वाली काफी उपज देने वाली किस्म है। गुच्छे मध्यम आकर के होते हैं। फल बीजरहित, गोलाकार एवं काले रंग के होते हैं। इस किस्म में गुच्छा भी लाल रंग काहोता है। यह किस्म रस एवं मदिरा बनाने के लिए उपयुक्त है। प्रवर्धन अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है। जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं। कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए। सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं।कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए। इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँचीक्यारियों में लगा देते हैं। एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित करदेते हैं। बेलों की रोपाई रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें। खेत को भलीभांति तैयार कर लें। बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है। इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें। बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है। बेलों की सधाई एवं छंटाई बेलों से लगातार अच्छी फसल लेने के लिए एवं उचित आकर देने के लिए साधना एवं काट- छाँट की सिफारिश की जाती है। बेल को उचित आकर देने के लिए इसके अनचाहे भाग के काटने को साधना कहते हैं, एवं बेल में फल लगने वाली शाखाओं को सामान्य रूप से वितरण हेतु किसी भी हिस्से की छंटनी को छंटाई कहतें हैं। अंगूर की बेल साधने हेतु पण्डाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवं हैड आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं। लेकिन व्यवसायिक इतर पर पण्डाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है। पण्डाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊँचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है। जालतक पहुँचने के लिए केवल एक ही ताना बना दिया जाता है। तारों के जाल पर पहुँचने पर ताने को काट दिया जाता है ताकि पार्श्व शाखाएँ उग आयें।उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पार्श्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है। इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8 - 10 तृतीयक शाखाएँ विकसितहोंगी इन्ही शाखाओं पर फल लगते हैं। छंटाई बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है। छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए। सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है। कितनी छंटाई करें छंटाई की प्रक्रिया में बेल के जिस भाग में फल लगें हों, उसके बढे हुए भाग को कुछ हद तक काट देते हैं। यह किस्म विशेषपर निर्भर करता है। किस्म के अनुसार कुछ स्पर को केवल एक अथवा दो आँख छोड़करशेष को काट देना चाहिए। इन्हें 'रिनिवल स्पर' कहते हैं। आमतौर पर जिन शाखाओं परफल लग चुके हों उन्हें ही रिनिवल स्पर के रूप में रखते हैं। छंटाई करते समय रोगयुक्त एवं मुरझाई हुई शाखाओं को हटा दें एवं बेलों पर ब्लाईटोक्स 0.2 % का छिडकाव अवश्य करें। किस्म कितनी आँखें छोडें 1 ब्यूटी सीडलेस 3 - 3 2 परलेट 3-4 3 पूसा उर्वसी 3-5 4 पूसा नवरंग 3-5 5 पूसा सीडलेस 8-10 सिंचाई नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है। फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई )तक पानी की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल पकने की प्रक्रिया शुरू होतेही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं। फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। खाद एवं उर्वरक अंगूर की बेल भूमि से काफी मात्र में पोषक तत्वों को ग्रहण करती है। अतः मिट्टी कि उर्वरता बनाये रखने के लिए एवं लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए यह आवश्यक है की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्तिकी जाये। पण्डाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है। खाद कब दें छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधीमात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाईकरें। खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें। कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार अच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर केबीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है। फसल निर्धारण फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवंपकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैडपद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें। छल्ला विधि इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता,उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौडी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए। वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है। पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए। जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है।यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है। फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है। यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं। फल तुड़ाई एवं उत्पादन अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं,अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए। शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं। फलों कीतुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए। उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें। पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें। अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं। परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है। बीमारियाँ एवं कीट बीमारियाँ उत्तरी भारत में अंगूर को मुख्यतः एन्थ्रक्नोज एवं सफ़ेद चुरनी रोग ही मुख्य बीमारियाँ हैं। एन्थ्रक्नोज बहुत ही विनाशकारी रोग है। इसका प्रभावफल एवं पत्ती दोनों पर होता है। पत्तों की शिराओं के बीच जगह - जगह टेढ़े-मेढ़े गहरे भूरे दाग पद जाते हैं। इनके किनारे गहरे भूरे या लाल रंग के होते हैं। परन्तु मध्य भाग धंसा हुआ हलके रंग का होता है और बाद में पत्ता गिर जाता है। आरम्भ में फलों पर धब्बे हल्के रंग के होते हैं परन्तु बाद में बड़ा आकर लेकर बीच में गहरे हो जाते हैंतथा चारों ओर से लालिमा से घिर जाते हैं। इस बीमारी के नियंत्रण हेतु छंटाईके बाद प्रभावित भागों को नष्ट कर दे। कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 % के घोल का छिड़काव करें एवम पत्ते निकलने पर 0.2% बाविस्टिन का छिड़काव करें। वर्षा ऋतु में कार्बेन्डाजिम 0.2% का छिडकाव15 दिन के अंतराल पर आवश्यक है। सफ़ेद चूर्णी रोग अन्य फफूंद बीमारियों की अपेक्षा यह शुष्क जलवायु में अधिक फैलाती है। प्रायः पत्तों, शाखाओं, एवं फलों पर सफ़ेद चूर्णी दाग देखे जा सकते हैं। ये दाग धीरे - धीरे पुरे पत्तों एवं फलों पर फ़ैल जाते हैं। जिसके कारण फल गिर सकते हैं या देर से पकते हैं। इसके नियंत्रण के लिए 0.2% घुलनशील गंधक, या0.1% कैरोथेन के दो छिडकाव 10 - 15 दिन के अंतराल पर करें। कीट थ्रिप्स, चैफर, बीटल एवं चिडिया, पक्षी अंगूर को हानि पहुंचाते हैं। थ्रिप्स का प्रकोप मार्च से अक्तूबर तक रहता है। ये पत्तियों, शाखाओं, एवं फलों का रसचूसकर हानि पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 500 मिली. मेलाथियान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें। चैफर बीटल कीट रात में पत्तों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करता है, वर्षाकाल में 10 दिन के अंतराल पर 10 % बी.एच.सी. पावडर बुरक देना इस कीट के नियंत्रण हेतु लाभदायक पाया गया है। चिडिया अंगूर को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। फल पकने के समय चिडिया गुच्छे खा जाती है। अतः घर से आंगन में लगी बेल के गुच्छों को हरे रंग की मलमल की थैलियों से ढक देना चाहिए। बड़े - बड़े बगीचों में नाइलोन के जाल से ढक दें , ढोल बजाकर चिडियों से छुटकारा पाया जा सकता है। फलों की गुणवत्ता-महत्वपूर्ण दिशानिर्देशपादप जैव विनियामकों एवं सस्यक्रियाओं द्वारा फलों की क्वालिटी में सुधार।भा. कृ. अ. सं. द्वारा मानसूनी वर्षा प्रारंभ हाने से पहले ही अंगूरों की अगेती तुड़ाई कर लेने की तकनीक विकसित की गयी है। जनवरी के प्रथम सप्ताह में छंटाई के तुरन्त पश्चात अंगूर बेलों परडार्मेक्स अथवा डॉरब्रेक (30 मि.ली. काएक छिड़काव किया जाता है। इस उपचार से फल2 से 3 सप्ताह पूर्व ही कलियां खिल जाती है तथा अंगूर पक जाते है।लंबे अंगूर प्राप्त करने के लिए पुष्पगुच्छों के आधा खिलने के समय उन्हें जिब्रेलिक एसिड में डुबोने सिफारिश की जाती है। ब्यूटी सीडलेस किस्म 45 पीपीएम वाले जीए3 के प्रति, तथा पर्लेट, पूसा उर्वशी और पूसा सीडलेसकिस्में 25-30 पीपीएम वाले जीए3 के प्रति इस संबध में अनुकूल प्रतिक्रिया प्रदर्शित करती हैं।फल के रंग और मिठास की दृष्टि से अंगूर की क्वालिटी में सुधार लाने के साथ-साथ फलों को शीघ्र पकाने हेतु अंगूरों को मटर के दानों के बराबर के आकार में बनाएगए घोल में डुबोया जा सकता है।इसके अतिरिक्त, फल क्वालिटी में सुधार लाने के लिए मुखय तने की गर्डलिंग और गुच्छों में अंगूरों की सघनता कम करने जैसी क्रियाएं (थिनिंग) भी लाभदायक पाईगई है। फल आने के 4-5 दिन पश्चात गर्डलिंग चाकू की मदद से तने के चारों ओर भू-सतह से 30 सें. मी. ऊंचाई तक पतली छाल (0.5-1.0 सें. मी.) को गोलाकार हटा दिया जाता है। कैंची अथवा ब्रशिंग द्वारा पुष्पगुच्छ के एक तरफ से फलों को पूरी तरह हटाकर गुच्छों की थिनिंग की जाती है। अकेले गर्डलिंग करने से फल के भार में वृद्धि की जा सकती है लेकिन थिनिंग (छरहरापन) के साथ गर्डलिंग करनेसे अंगूर की मिठास (टीएसएस) में 2-3 प्रतिशत वृद्धि होती है और उन्हें एक सप्ताह अगेती पकाया जा सकता है।खाद कब देंछंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधीमात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाईकरें। खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें।कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधारअच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर केबीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है।फसल निर्धारणफसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवंपकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैडपद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें।छल्ला विधिइस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता,उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौड़ी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए।नाशीजीवों एवं बीमारियों का नियंत्रणपत्ती लपेटक इल्लियां पत्ती के किनारोंको मध्यधारी की ओर लपेट देती है। ये इल्लियां पत्तियों की निचली बाह्‌य सतह पर पलती हैं। इस नाशीजीव के नियंत्रण हेतु 2 मि. ली. मेलाथियॉन अथवाडाइमेथोएट को प्रति लीटर पानी में 2 मि.ली. की दर से डाइमेथोएट अथवा  मेलाथियॉनका छिड़काव करने से लीफ हॉपर (पात-फुदके)को भी नियंत्रित किया जा सकता है। अंगूर की बेलों पर शल्क (स्केल) भी दिखाई पड़ते हैं जिन्हें प्रति ली. पानी में 1 मि. ली. डाइजिनॉन मिलाकर बेलों  की छंटाई के तुरंत बाद छिड़कने से सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है। दीमकों के हमले से बचने के लिए 15-20 दिन के  अन्तराल पर एक बार 5 मि. ली. क्लोरोपायरीफॉस को प्रति लिटर जल में घोलकर तने पर छिड़कना तथा मिट्‌टी को इस घोल से भिगोना लाभदायक है।

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