Friday 5 January 2018

Aloevera ki kheti kese kre एलोविरा की खेती के बारे में पूरी जानकारी


हेल्लो दोस्तों नमस्कार।आज की इस पोस्ट में हमओषधीय फसल एलोविरा की खेती केसे करे इसके बारे में जानेंगे।

एलोवीरा का पोधा

परिचय:-
एलोविरा की उत्त्पति का स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है।इसे कई नामो से जाना जाता है। जैसे घृतकुमारी, ग्वारपाटा, अग्रेजी में एलॉय नाम से भी जाना जाता है। ग्वारपाटा के पोधे की ऊचाई 60- 90 से.मी.तक होती है। पत्तो की लम्बाई 30-45 सेमी. तक होती है। पत्ते 4.5सेमी से 7.5सेमी तक होते है। जड़ से उपर सतह के साथ ही पत्ते निकलने लगते है। पत्तो का रंग हरा होता है। और पत्तो की किनारों पर छोटे छोटे काटे जैसे होते है। अलग अलग रोगों के हिसाब से इसकी कई सारी प्रजातिया है।

एलोवीरा का उपयोग:- 

Aloevera में कई सारे औषधीय गुण होते है।इसलिए इसका उपयोग आयुवेदिक में बड़े पैमाने से होता आ रहा है। आज के दोर में कई सारी नेशनल और इंटर नेशनल कंपनियाँ इसका उपयोग चिकित्सा के साथ साथ सौंदर्य प्रसाधन के जैसे फेसवास क्रीम शेम्पू  दन्त पेस्ट अन्य कई सारे product में इसका इस्तेमाल होता है।इसलिए इसकी मांग बडने लगी है। यह पोधा गमले में भी अच्छी तरह से चलता है। मैने भी इसे अपने घर पर लगारखा है। क्यों की यह जलने पर इसके पत्तो में से गुद्दा और रस लगाने से काफी ज्यादा relif मिलती है।कईसारे लोग इसे मकानों की छत और gardan में शोकियाना तोर पर भी लगाते है। इसकी बढती मांग की वजह से इसकी खेती व्यावसायिक रूप में शुरू हो गयी है।

Aloevera ki kheti kese kre 
एलोवीरा की खेती के लिए khet की तैयारी:-वेसे एलोविरा के पौधे किसी भी प्रकार की उपजाऊ अनुपजाऊ मिट्टी में आसानी से उग जाते है।बस आपको बस एक बात का ध्यान रखना है की पोधा अधिक जल भराव और पाला पड़ने वाली जगह पर नही लगाना है।सबसे पहले खेत की 2 बार अच्छे से जुताई कर उसमे प्रति हेक्टेयर 10 से 20 टन के बीच में अच्छी पकी हुई गोबर की खाद डाले साथ में 120 किलोग्राम यूरिया+150किलोग्राम फास्फोरस+30किलोग्राम पोटाश इनको खेत में समान रूप से बिखेर देवे फिर एक बार हलकी जुताई करा के पाटा लगा कर मिट्टी को समतल बना ले। फिर खेत में 50×50 सेमी. की दूरी पर उठी हुई क्यारी बना ले।

पोधो की रोपाई एवं रखरखाव:-
पोधो की रोपाई किसी भी समय की जा सकती है। लेकिन अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए जून जुलाई और फरवरी से मार्च के बीच कर सकते है। एलोवीरा की रोपाई प्रकंदों से होती है इसलिए उनकी लम्बाई 10 से 15 सेमी के होने चाहिए। अच्छी उपज के लिए अनुशासित किस्में  सिम-सितल एल 1,2,5 और 49 है।जिसमे जेल की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। प्रकंदों की दुरी 50×50 रख के बीच में दुरी 30सेमी की रख कर रोपाई करनी चाहिए।घर्तकुमारी की सिचाई:- सालभर में इसे मात्र 4 या 5 बार सिचाई की आवश्यकता होती है। सिचाई के लिए स्प्रिकलर और ड्रीप प्रणाली अच्छी रहती है। इससे इसकी उपज में बढ़ोत्तरी होती है।गर्मी के दिनों में  25 दिनों के अंतराल में सिचाई करनी चाहिए।निदाई गुड़ाई:-
 खतपतवार की स्थिति देख कर निदाई गुड़ाई आवश्यक हो जाती है वर्ष भर में 3 या 4 निदाई करनी चाहिये निदाईके बाद पोधो की जड़ो में मिट्ठी चढ़ानी चाहिए ताकि पौधे गिरे नही।रोग और किट नियन्त्रण:-वेसे तो इस फसल पर कोई विशेष किट और रोगों का प्रभाव नही होता है।लेकिन कही कही तनो के सड़ने और पत्तो पर दब्बो वाली बीमारियाँ का असर देखा गया है।जो एक फफूंद जनक रोग होता है उसके उपचार के लिए मेंन्कोजेब3 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से छिडकाव करना चाहिए।एलोविरा की कटाई और उत्पादन:-यह फसल एक वर्ष बाद काटने योग्य हो जाती है। कटाई के दौरान पोधो की सबसे पहले निचली ठोस 3 या 4 पत्तो की कटाई करे उसके उपरांत लगभग एक महीने के बाद उस से उपर वाली पत्तियों की कटाई करनी चाहिए कभी भी उपर कीनई नाजुक पत्तियों की कटाई नही करे। कटे हुए पत्तों में फिर से नई पत्तिया बननी शुरू हो जाती है।प्रति हेक्टेयर 50 से 60 टन ताजी पत्तिया प्रतिवर्ष मिल जाती है। दूसरे वर्ष में 15 से 20 प्रतिशत वर्धी होती है। बाज़ार में इन पत्तियों की बाजार में अनुमानित कीमत 3 से 6 रूपये किलो होती है। एक स्वस्थ पोधे की पत्तियो का वजन 3 से 5 किलो तक हो जाता है।

कटाई के बाद प्रबंधन और प्रसस्करण:-

स्वस्थ पत्तियों की कटाई के बाद साफ़ पानी से धो कर पत्तियों के निचले हिस्से में ब्लेड या चाकू से कट लगा कर थोड़े समय के लिए छोड़ देते है। जिसमे से पीले रंग का गाडा चिपचिपा प्रदार्थ-रस (जेल) निकलता है उसे एक पात्र में इक्कठा कर के वाष्पीकरण विधि से इसरस को सुखा लिया जाता है।इस सूखे हुए रस को जातिगत और अलग अलग विधि से तेयार करने के बाद अलग अलग नामों से जाना जाता है। जैसे सकोत्रा,केप,जंजीवर,एलोज,अदनी आदि ।एलोविरा की खेती करने के क्या फ़ायदा है:-*इसकी खेती किसी भी जमींन पर आसानी से की जा सकती है।*कम खर्च और और सस्ती खेती। गरीबी किसान को फ़ायदा।*सिचाई और दवाई का कम खर्च।*बंजर और अनूउपयोगी जमीन का उपयोग हो जाता है।*इसे कोई भी पशु नही खाता है इसे खेत की मेड पर चारोंतरफ लगाने से दूसरी फसल की भी सुरक्षा हो जाती है*एक बार लगाने के बाद 5 सालों तक आसानी से फसल ले सकते है।*अन्य फसलो की तुलना में मिट्टी का हास कम होता है।
घृतकुमारी जिसे ग्वारपाठा एवं एलोवेरा के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन समय से ही चिकित्सा जगत में बीमारियों को उपचारित करने के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। घृतकुमारी के गुणों से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। हम सभी ने सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से इसका उपयोग किसी न किसी रुप में किया है। घृतकुमारी में अनेकों बीमारियों को उपचारित करने वाले गुण मौजूद होते हैं। इसीलिए ही आयुर्वेदिक उद्योग में घृतकुमारी की मांग बढ़ती जा रही है। एक बार लगाने पर तीन से पाँच साल तक उपज ली जा सकती है। और इसे खेत की मेड पर भी लगा सकते है जिसके कई फैदे है एक आप के खेत में कोई आवारा पशु नही आएगा | आपके खेत की मेडबंधी भी हो जाएगी एलोवेरा को कोई जानवर भी नही खाता है आप को अतिरिक्त आमदनी हो जाएगी |


मृदा एवं जलवायु:प्राकृतिक रूप से इसके पौधे को अनउपजाऊ भूमि में उगते देखा गया है। इसे किसी भी भूमि में उगाया जा सकता है। परन्तु बलुई दोमट मिट्टी में इसका अधिक उत्पादन होता है।उन्नतशील प्रजातियाँ: केन्द्रीय औषधीय सगंध पौधा संस्थानके द्वारा सिम-सीतल, एल- 1,2,5 और 49 एवं को खेतों में परीक्षण के उपरान्त इन जातियों से अधिक मात्रा में जैल की प्राप्ति हुई है। इनका प्रयोग खेती (व्यवसायिक) के लिए किया जा सकता है।पौध रोपाi

:भूमि की एक-दो जुताई के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बना लें। इसके उपरान्त ऊँची उठी हुई क्यारियों में 50&50 सेमी की दूरी पर पौधों कोरोपित करें। पौधों की रोपाई के लिए मुख्य पौधों के बगल से निकलने वाले छोट छोटे पौधे जिसमें चार-पाँच पत्तियाँ हों, का प्रयोग करें। लाइन सेलाइन की दूरी 50 एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 रखने पर 10,000 पौधों की आवश्यकता रोपाई के लिएहोगी। सिचिंत दशाओं में इसकी रोपाई फरवरी माह में उतम होती है वैसे आप कभी भी इसे लगा सकते हो |खाद एवं उर्वरक:
10-12 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद पौधे के अच्छे विकास के लिए आवश्यक है। 120 किग्रा. यूरिया, 150 किग्रा. फास्फोरस एवं 33 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नाइट्रोजन को तीन बार में एवं फास्फोरस व पोटाश को भूमि की तैयारी के समय ही दें। नाइट्रोजन का पौधों पर छिड़काव करना अच्छा रहता है।
सिंचाई:
पौधों की रोपाई के बाद खेत में पानी दें। (घृतकुमारी) की खेती में ड्रिप एवं स्ंिप्रकलर सिंचाई अच्छी रहती है। प्रयोग द्वारा पता चला है कि समय से सिंचाई करने पर पत्तियों में जैल का उत्पादन एवं गुणवत्ता दोनों पर अच्छा प्रभावपड़ता है। इस प्रकार वर्ष भर में 3-4 सिंचाईओं की आवश्यकता होती है।रोग एवं कीट नियन्त्रण:समय-समय पर खेत से खरपतवारों को निकालते रहें। खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा बढऩे पर खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊँची उठी हुई क्यारियों की समय समय पर मिट्टी चढ़ाते रहें। जिससे पौधों की जड़ों के आस-पास पानी के रूकने की सम्भावना कम होती है एवं साथ ही पौधों को गिरने से भी बचाया जा सकता है। पौधों पर रोगों का प्रकोप कम ही होता है। कभी-कभी पत्तियों एवं तनों के सडऩे एवं धब्बों वाली बीमारियों के प्रकोप को देखा गया है। जो कि फफूंदी जनित बीमारी है। इसकी नियंत्रण के लिए मैंकोजेब, रिडोमिल, डाइथेन एम-45 का प्रयोग 2.0-2.5 ग्राम/ली. पानी में डालकर छिड़काव करने से किया जा सकता है। ग्वारपाठा के पौधों को अधिकपानी की आवश्यकता नहीं होती है, परंतु खेत में हल्की नमी बनी रहे व दरारें नहीं पड़ना चाहिए। इससे पत्तों का लुबाब सूख कर सिकुड़ जाते हैं। बरसात के मौसम में संभालना ज्यादा जरूरी होता है। खेत में पानी भर जाए तो निकालने का तत्काल प्रबंध करें। लगातार पानी भरा रहने पर इनके तने (पत्ते) और जड़ के मिलान स्थल पर काला चिकना पदार्थ जमकर गलना शुरू हो जाता है।फसल की कटाई एवं उपज:रोपाई के 10-15 महिनों में पत्तियाँ पूर्ण विकसित एवं कटाई के योग्य हो जाती हैं। पौधे की ऊपरी एवं नई पत्तियों की कटाई नहीं करें। निचली एवं पुरानी 3-4 पत्तियों को पहले काटना/तोडें। इसके बाद लगभग 45 दिन बाद पुन: 3-4 निचली पुरानीपत्तियों की कटाई/तुड़ाई करें। इस प्रकार यह प्रक्रिया तीन-चार वर्ष तक दोहराई जा सकती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग प्रतिवर्ष 50-60 टन ताजी पत्तियों की प्राप्ति होती है। दूसरे एवं तीसरे वर्ष 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है। यदि ग्वारपाठे के एक स्वस्थ पौधे से 400 ग्राम (मिली) गूदा भी निकलती हैकटाई उपरान्त प्रबंन्धन एवं प्रसंस्करण :विकसित पौधों  से निकाली गई, पत्तियों को सफाई करने के बाद स्वच्छ पानी से अच्छी तरह से धो लिया जाता है, जिससे मिट्टी निकल जाती है। इन पत्तियों के निचले सिरे पर अनुप्रस्थ काट लगा कर कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं, जिससे पीले रंगका गाढ़ा रस निकलता है। इस गाढ़े रस को किसी पात्र में संग्रह करके वाष्पीकरण की विधि से उबाल कर, घन रस क्रिया द्वारा सुखा लेते है। इस सूखे हुए द्रव्य को मुसब्बर अथवा  सकोत्रा, जंजीवर, केप, बारवेडोज एलोज एवं अदनी आदि अन्य नामों से से विश्व बाजार में जाना जाता है। (घृतकुमारी) की जातिभेद एवं रस क्रिया में वाष्पीकरण की प्रक्रिया के अन्तर से मुसब्बर केरंग, रूप, तथा गुणों में भिन्नता पाई जाती है।मेंबरशिप:- अगर आप हमारे साथ जुड़ना चाहते हैं जिसमे  आपको साल भर aloe vera , खेती की जानकारी जैसे पौध कहा से मिलेगी , पानी कब कब लगाना है,कटाई कब और कैसे करनी है , जूस और जेल निकलने की मशीन कहा से मिलेगी ,मंडी कहा कहा है ,जैसी सुविधाओ का लाभ आप मेम्बरशिप के दुवारा उठा सकते हैं और डेरी की जानकारी मिलती रह


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