Tuesday 2 January 2018

बंदरों के बारे में 22 रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारीया

बंदरों के बारे में 22 रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारीया

Monkeys in Hindi, बंदर के बारे में 22 रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारीया

1.बंदरों को दो वर्गो में बांटा गया है – पहले प्राचीन दुनिया के बंदर जोऐशियाऔरअफ्रीकामें पाए जाते है और दूसरे नवीन दुनिया के बंदर जो दक्षिणी अमेरिका में पाए जाते हैं।2.नवीन दुनिया के बंदरों के 36 दांत होते है जबकि प्राचीन दुनिया के बंदरों के 32.3.बंदर आम तौर परपेड़ों, घास के मैदानों, पहाड़ो और जंगलो में रहते हैं।4.मनुष्यों के सिवाए केवल बंदर ही एकलौते ऐसे प्राणी हैजोकेलोंके छिलके उतार कर खाते हैं।5.बंदरों और मनुष्यों का 98% DNA आपस में मिलता है।6.बंदरफलों, फुलों और पत्तों के इलावाकीड़ेऔर रेंगने वाले प्राणियों को भी खाते हैं।

जापानमें एक रेस्टोरेंट है जहां पर बंदरों को वेटर के रूप में रखा गया है।8.कभी भी बंदरों को छूने की कोशिश ना करें, क्योंकि यह उन्हें अच्छा नही लगता और वो आप पर हमला भी कर सकते हैं।9.वर्तमान में बंदरों की 264 प्रजातिओं को खोज़ लिया गया है।10.बंदरों को गिणती करना सिखाया जा सकता है।11.बंदरों के समूह कोअंग्रेज़ीमें ‘troop’ कहा जाता है।12.2011 में पाकिस्तान ने एक बंदर को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि वह बार्डर पार करभारतकी तरफ जा रहा था। (इन पाकिस्तानी बेवकूफों का कोई इलाज नहीं)13.चिपांजी बंदरों की एक किस्म है, अगर इन्हें अपने किसी उचित काम का फल ना मिले तो यह हमारी तरह खीझ जाते हैं। यह कहना हैअमेरीकाकी एक युनीर्वसिटी का जिसने एक ऐसा खेल तैयार किया जिसमें फ़ैसले लेने होते थे और जीतने पर खाने की चीज़ें मिलती थीं। इसमें खेल में हारने वाले बंदरों को स्वादिष्ट केले के बजाय हल्का खीरा दिया गया तो उन्होंने ऐसी प्रतिक्रिया की जिसे बंदरों की खीझ कहा जा सकता है।14.साल 2000 से 14 दिसंबर के दिन को “World MonkeyDay” के रूप से मनाया जा रहा है।15.सभी बंदरों के पास खुद का फिंगरप्रिंट होता है।16.साल 1949 में एक बंदर को 133 किलोमीटर की ऊंचाई परउड़ाया गया था। उसका नाम Albert II रखा गया था।17.बंदर, महिला साथी को सेक्स के लिए लुभाने के लिए पहले अपने हाथों पर पेशाब करते है और फिर उसे पूरे शरीर पर रगड़ लेते है।18.चीन और मलेशिया में मरे हुए बंदर के दिमाग को बड़े चाव से खाया जाता है।19.‘Howler‘ नाम के बंदर की चीख 5km दूर से सुनी जा सकती है।20.जब बंदरों को शीशा दिया जाता है तो ये सबसे पहले अपने गुप्तांगों का निरीक्षण करते है।21.बंदरियाँ अपने पेट में बच्चे को 134 से 237 दिनों तक रखने के बाद जन्म देती है।22.बंदर ही मनुष्यों के सिवाए एकलौते प्राणी है जो केले को छील कर खाते हैं। शायद आपको न पता हो कि ये केले को उल्टा छिलते है।Tags : About Monkey in Hindi, Monkey information in Hindi

बंदरएकमेरूदण्डी, स्तनधारी प्राणी है। इसके हाथ की हथेली एवं पैर के तलुए छोड़कर सम्पूर्ण शरीर घने रोमों से ढकी है। कर्ण पल्लव, स्तनग्रन्थी उपस्थित होते हैं। मेरूदण्ड का अगला भाग पूँछ के रूप में विकसित होता है। हाथ, पैर की अँगुलियाँ लम्बी नितम्ब पर मांसलगदी है।

बंदरवानरजीवाश्म काल: Oligocene–Present

एक युवा नर बंदर (Cebus albifrons).

**वैज्ञानिक वर्गीकरण**
जीववैज्ञानिक वर्गीकरण
आधुनिक विचार के अनुसार जीवों की तीन प्रमुख श्रेणिया


जीवजगत के समुचित अध्ययन के लिये आवश्यक है कि विभिन्न गुणधर्म एवं विशेषताओं वाले जीव अलग-अलग श्रेणियों में रखे जाऐं। इस तरह से जन्तुओं एवं पादपों के वर्गीकरण कोवर्गिकीयावर्गीकरण विज्ञानअंग्रेजीमें वर्गिकी के लिये दो शब्द प्रयोग में लाये जाते हैं -टैक्सोनॉमी(Taxonomy) तथासिस्टेमैटिक्स(Systematics)।कार्ल लीनियसने 1735 ई. मेंसिस्तेमा नातूरै(Systema Naturae) नामक पुस्तक सिस्टेमैटिक्स शब्द के आधार पर लिखी थी।[1]आधुनिक युग में ये दोनों शब्द पादप और जंतु वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होते हैं।वर्गिकी का कार्यआकारिकी,आकृतिविज्ञान(morphology)क्रियाविज्ञान(physiology),परिस्थितिकी(ecology) औरआनुवंशिकी(genetics) पर आधारित है। अन्य वैज्ञानिक अनुशासनों की तरह यह भी अनेक प्रकार के ज्ञान, मत और प्रणालियों का सश्लेषण है, जिसका प्रयोग वर्गीकरण के क्षेत्र में होता है। जीवविज्ञान संबंधी किसी प्रकार के विश्लेषण का प्रथम सोपान है सुव्यवस्थित ढंग से उसका वर्गीकरण; अत: पादप, या जंतु के अध्ययन का पहला कदम है उसका नामकरण, वर्गीकरण और तब वर्णन।
इस पूर्वावलोकन का आकार:499 × 599 पिक्सेल।अन्य resolutions:200 × 240 पिक्सेल|400 × 480 पिक्सेल|500 × 600 पिक्सेल|639 × 768 पिक्सेल|1,214 × 1,458 पिक्सेल।मूल फ़ाइल‎((1,214 × 1,458 पिक्सेल, फ़ाइल का आकार: 80KB, MIME प्रकार:image/jpeg))फ़ाइल का इतिहासफ़ाइलका पुराना अवतरण देखने के लिये दिनांक/समय पर क्लिककरें।दिनांक/समयअंगूठाकार प्रारूपआकारसदस्यप्रतिक्रियावर्तमान13:26, 18 अक्टूबर 20081,214 × 1,458(80 KB)अनुनाद सिंह(चर्चा|योगदान)*.आप इस फ़ाइल को अधिलेखित नहीं कर सकते।फ़ाइल का उपयोगनिम्नलिखित पन्ने इस चित्र से जुडते हैं :*.जीववैज्ञानिक वर्गीकरणअंतिम बार 8 नवम्बर 2011 को 19:48 बजे संपादित किया गयासामग्रीCC BY-SA 3.0के अधीन है जब तक अलग से उल्लेखना किया गया हो।गोपनीयताडेस्कटॉप

जन्तु वर्गिकी

वर्गिकी का मूल निर्माण आकारकी याआकृतिविज्ञान(morphology),क्रियाविज्ञान(physiology),परिस्थितिकी(ecology) औरआनुवंशिकी((genetics) पर आधारित है। अन्य वैज्ञानिक अनुशासनों की तरह यह भी अनेक प्रकार के ज्ञान, मत और प्रणालियों कासंश्लेषणहै, जिसकाप्रयोग वर्गीकरण के क्षेत्र में होता है।जीवविज्ञानसंबंधी किसी प्रकार के विश्लेषण का प्रथम सोपान है सुव्यवस्थित ढंग से उसका वर्गीकरण; अत: पादप, या जंतु के अध्ययन का पहला कदम है उसका नामकरण, वर्गीकरण और तब वर्णन।आजकल पादप की चार लाख जातियों से अधिक जातियाँ ज्ञात हैं। ये लिनीअस के समय से साठगुनी अधिक हैं। प्रति वर्ष लगभग 4,750 नई जातियों का वर्णन होता है। समानार्थक (synonyms) और उपजातियों (subspecies) को मिलाकर केवल फ़ेनरोगैम्स (Phanerogams) और क्रिप्टौगैम्स (cryptogams) नामक पादप समूहों में 1763 से 1942 ई. तक दस लाख से भी अधिक नाम दिए जा चुके हैं।वर्णित जंतुओं की जातियाँ गिनती में पादप जातियों से कहीं अधिक हैं। उपजातियों को मिलाकर 20 लाख से अधिक जंतुजातियों के नाम ज्ञात हैं और प्रति वर्ष लगभग 10,000 नई जातियों का वर्णन होता है।जैविक वर्गीकरण का इतिहासजन्तुजगत का वर्गीकरणवर्गीकरण विज्ञान का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास। समझ बूझ होते ही मनुष्य ने आस पास के जंतुओं और पौधों को पहचानना तथा उनको नाम देना प्रारंभ किया।ग्रीस(ग्रीस) के अनेक प्राचीन विद्वान, विशेषत:हिपॉक्रेटीज(Hippocrates, 46-377 ई. पू.) ने औरडिमॉक्रिटस(Democritus, 465-370 ई. पू.), ने अपने अध्ययन में जंतुओं को स्थान दिया है। स्पष्ट रूप सेअरस्तू(Aristotle, 384-322 ई. पू.) ने अपने समय के ज्ञानका उपयुक्त संकलन किया है। ऐरिस्टॉटल के उल्लेख में वर्गीकरण का प्रारंभ दिखाई पड़ता है। इनका मत है कि जंतु अपने रहन सहन के ढंग, स्वभाव और शारीरिक आकार के आधार पर पृथक् किए जा सकते हैं। इन्होंनेपक्षी,मछली,ह्वेल,कीटआदि जंतुसमूहों का उल्लेख किया है और छोटे समूहों के लिएकोलियॉप्टेरा(Coleoptera) औरडिप्टेरा(Diptera) आदि शब्दों का भी प्रयोग किया है। इस समय के वनस्पतिविद् अरस्तू की विचारधारा से आगे थे। उन्होंने स्थानीय पौधों का सफल वर्गीकरण कर रखा था। ब्रनफेल्स (Brunfels, 1530 ई.) और बौहिन (Bauhim, 1623 ई.) पादप वर्गीकरण को सफल रास्ते पर लानेवाले वैज्ञानिक थे, परंतु जंतुओं का वर्गीकरण करनेवाले इस समय के विशेषज्ञ अब भी अरस्तू की विचारधारा के अंतर्गत कार्य कर रहे थे।जन्विज्ञान विशेषज्ञों मेंजॉन रे(John Ray, 1627-1705 ई.) प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने जाति (species) और वंश (genus) में अंतर स्पष्ट किया और प्राचीन वैज्ञानिकों में ये प्रथम थे, जिन्होंने उच्चतर प्राकृतिक वर्गीकरण किया। इनका प्रभावस्वीडनके रहनेवाले महान प्रकृतिवादीकार्ल लीनियस(1707-1778) पर पड़ा। लिनीअस ने इस दिशा में अद्वितीय कार्य किया। इसलिए इन्हें वर्गीकरण विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है।अठारहवीं शताब्दी मेंविकासवादके विचारों का प्रभाव वर्गीकरण विज्ञान पर पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में यह प्रभाव अपने शिखर पर पहुंच गया। इसी समय दूरवर्ती स्थानों के जंतुओं में वर्गीकरण विशेषज्ञों की गंभीर रुचि हो गई थी। वे दूर देशों के जानवरों के विषय में जानकारी करना चाहते थे और परिचित जानवरों से उनका संबंध करना चाहते थे। इसलिए इस समय लंबी जलयात्राएँ हुई। दूर दूर के जानवरों का अध्ययन किया गया और उनके वंश तथा कुटुंब आदि का अध्ययन किया गया। एक ऐसी यात्रा बीग्ले नामक जहाज पर हुई थी जिसमेंचार्ल्स डार्विननामक प्रकृतिवादी भी सम्मिलित था। इस काल में वर्गीकरण विज्ञान में बड़ी प्रगति की गई और वर्गीकरण में अनेक नई जातियाँ, वंश और कुटुंब जोड़े गए।बीसवीं शताब्दी में किया गया वर्गीकरण विज्ञान की विशेषता है। हक्सलि (Huxely, 1940 ई.) के विचारानुसार आधुनिक वर्गीकरण विज्ञानभूगोल,पारिस्थितिकी(ecology),कोशिकी(cytology) औरआनुवंशिकी(genetics)आदि का संश्लेषण है। पहले समय में वर्गीकरण विज्ञान का आधार था "प्रकार" (type), जिसको आकृतिक लक्षणों की सहायतासे उपस्थित करते थे। आधुनिक वर्गीकरण विज्ञान में जातियों का वर्णन पूर्णतया आकृतिक लक्षणों पर आधारित नहीं है, जैविक है, जिसकी वजह से भौगोलिक, पारिस्थितिक, जननीय तथा कुछ अन्य लक्षणों पर भी ध्यान दिया जाता है। प्ररूप संकल्पना (type concept) श्रेणियों की स्थिरता को विस्तृत रूप देती है, एक दूसरे के बीच अंतर को बढ़ाती है और परिवर्तनशीलता को कम करती है। इसके विपरीत है जनसंख्या संकल्पना (population concept), जिसके अनुसार स्पीशीज़ परिवर्तनशील जनसंख्या से बनी है और स्थिर नहीं है।उत्क्रम से विशेष समूहों अथवा श्रेणियों की परिभाषा करना वर्गीकरण का निश्चित ढंग है। लिनीअस ने ऐसी पाँच श्रेणियाँ बनाई थीं :क्लासिस (Classic) अथवा वर्ग, गण (Ordo), जीनस (Grnus) अथवा वंश, स्पीशीज़ (Species) अथवा जाति और वैराइटाज़ (Varietas) अथवा प्रजाति।प्रत्येक श्रेणी में एक अथवा एक से अधिक नीचे स्तर के समूह सम्मिलित होते हैं और वे निम्न श्रेणी बनाते हैं। इसी तरह प्रत्येक क्रमिक श्रेणी एक अथवा एक से अधिक ऊँची श्रेणी से संबंधित होती है। ये श्रेणियाँ प्राकृतिक प्रभेद कम करके एक व्यापक प्रणाली बना देती हैं।ज्ञान के विकास के साथ साथ इन श्रेणियों की संख्या बढ़ती गई। जगत् और वर्ग के बीच संघ और गण (Order) तथा वंश के बीच में कुटुंब नामक श्रेणियाँ जोड़ी गई। लिनीअस के विचारानुसार प्रजाति (Varietas) एक वैकल्पिक श्रेणी है, जिसके अंतर्गत भौगोलिक अथवा व्यक्तिगत विभिन्नता आती है। इस तरह अब निम्न सात श्रेणियाँ हो गई हैं :जगत् (Kingdom), संघ (Phylum), वर्ग (Class), गण (Order), कुटुंब (Family) वंश (Genus) और जाति (Species)।वर्गीकरण की और अधिक परिशुद्ध व्याख्या के लिए इन श्रेणियों को भी विभाजित कर अन्य श्रेणियाँ बनाई गई हैं।अधिकतर मूल नाम के पहले अधि (Super) अथवा उप (Sub) उपसर्गों (Prefixes) को जोड़कर इन श्रेणियों का नामकरण किया गया है। उदाहरणार्थ, अधिगण (super order) और उपगण (suborder) आदि। ऊँची श्रेणियों के लिए कई नाम प्रस्तावित किए गए, परंतु सामान्य प्रयोग में वे नहीं आते। केवल आदिम जाति (tribe) का कुटुंब और वंश के बीच प्रयोग किया जाता है। कुछ लेखकों ने, जैसे सिंपसन, (Sympson, 1945 ई.) ने गण और वर्ग के बीच सहगण (Cohort) नाम का प्रयोग किया है।इस तरह साधारण तौर से काम लाई जानेवाली श्रेणियों की संख्या इस समय निम्नलिखित है :जगत् (Kingdom), संघ (Phylum), उपसंघ (Subphylum), अधिवर्ग (Superclass), वर्ग (Class) उपवर्ग (Subclass), सहगण या कोहॉर्ट (Cohort), अधिगण (Superorder), गण (Order), उपगण (Suborder), अधिकुल (Superfamily), कुल (Family), उपकुल (Subfamily), आदिम जाति (Tribe), वंश (Genus), उपवंश (Subgenus), जाति (Species) तथा उपजाति (Subspecies)।आधुनिक वर्गीकरणLinnaeus1735[2]Haeckel1866[3]Chatton1925[4]Copeland1938[5]Whittaker1969[6]Woeseet al.1990[7]Cavalier-Smith1998[8]2 kingdoms3 kingdoms2 empires4 kingdoms5 kingdoms3 domains6 kingdoms(not treated)ProtistaProkaryotaMoneraMoneraBacteriaBacteriaArchaeaEukaryotaProtoctistaProtistaEucaryaProtozoaChromistaVegetabiliaPlantaePlantaePlantaePlantaeFungiFungiAnimaliaAnimaliaAnimaliaAnimaliaAnimaliaजीववैज्ञानिक वर्गीकरणकी आठ मुख्य श्रेणियां। मध्यवर्ती लघु श्रेणियां नहीं दिखाई गयी हैं.वर्तमान समय में 'अन्तर्राष्ट्रीय नामकरण कोड' द्वारा जीवों के वर्गीकरण कीसातश्रेणियाँ (Ranks) पारिभाषित की गयी हैं। ये श्रेणियाँ हैं- जगत (kingdom), संघ (phylum/division), वर्ग (class), गण (order), कुल (family), वंश (genus) तथा जाति (species). हाल के वर्षों मेंडोमेन(Domain) नामक एक और स्तर प्रचलन में आया है जो 'जगत' के रखा ऊपर है। किन्तु इसे अभी तक कोडों में स्वीकृत नहीं किया गया है। सात मुख्य श्रेणियों के बीच में भी श्रेणियाँ बनाई जा सकती हैं जिसके लिये 'अधि-' (super-), 'उप-' (sub-) या 'इन्फ्रा-' (infra-)उपसर्गोंका प्रयोग करना चाहिये। इसके अलावाजन्तुविज्ञानतथावनस्पति विज्ञानके वर्गीकरण की श्रेणियों में मामूली अन्तर भी है (जैसे - 'आदिम जाति' (ट्राइब))।इस समय साधारण तौर से काम लाई जानेवाली श्रेणियाँ निम्नलिखित है :*.जगत(Kingdom),*.संघ(Phylum),*.उपसंघ (Subphylum),*.अधिवर्ग (Superclass),*.वर्ग(Class)*.उपवर्ग (Subclass),*.सहगण या कोहऑर्ट (Cohort),*.अधिगण (Superorder),*.गण(order),*.उपगण (Suborder),*.अधिकुल (Superfamily),*.कुल(Family),*.उपकुल (Subfamily),*.आदिम जाति (Tribe),*.वंश(Genus),*.उपवंश (Subgenus),*.जाति(Species) तथा*.उपजाति (Subspecies)पारजैविक वर्गिकीपरजीवियों में वृहत भिन्नता, जीव वैज्ञानिकों के लिये उनका वर्णन करना तथा उन्हें नामावली बद्ध करना एक बड़ी चुनौती उपस्थित करती है। हाल ही में हुए विभिन्न जातियोंको पृथक करने, पहचानने व विभिन्न टैक्सोनॉमी पैमानों पर उनके विभिन्न समूहों के बीच संबंध ढूंढने हेतु डी.एन.ए. प्रयोग पारजैवज्ञों के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण व सहायकरहे हैं।वर्गीकरण श्रेणियांवर्गीकरण की कुल आठ श्रेणियां (रैंक) हैं।इन्हें भी देखें*.प्राणियों का वर्गीकरण*.पादप वर्गीकरण*.आईयूपीएसी नामकरण- रसायनों के नाम की वैज्ञानिक पद्धति*.द्विपद नामकरण*.वानस्पतिक नाम*.कार्ल लिनियस*.वर्गिकी (सामान्य)

प्राणियों का वर्गीकरणप्राणियों की सख्या बहुत अधिक हो गई है। अब तक इनके दो लाख वंशों और 10 लाख जातियों का पता लगा है। प्राणियों के सुचातु रूप से अध्ययन के लिएप्राणियों का वर्गीकरणबहुत आवश्यक हो गया है। वर्गीकरण कठिन कार्य है। विभिन्नप्राणिविज्ञानी वर्गीकरण में एकमत नहीं हैं। विभिन्न ग्रंथकारों ने विभिन्न प्रकार से जंतुओं का वर्गीकरण किया है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जिनको किसी एक वर्ग में रखनाभी कठिन होता है, क्योंकि इनके कुछ गुण एक वर्ग के जंतुओं से मिलते हैं तो कुछ गुण दूसरे वर्ग के जंतुओं से।साधारणतया सभी वैज्ञानिक सहमत हैं कि जंतुओं का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से होना चाहिए जिसमें छोटे समूह से प्रारंभ करके क्रमश: बड़े-बड़े समूह दिए हैं :1. जाति (species),2. वंश (genus),3. कुल (family),4. गण (order),5. वर्ग (class) तथा6. संघ या फाइलम (phyllum)।इन विभाजनों के भी अंतर्विभाग हैं जिन्हें उप (sub), अव या अध: (infra) और अधि (super) जोड़कर बनाते हैं।जंतुओं का नामकरणविभिन्न देशों में और विभिन्न भाषाओं में जंतुओं के नाम भिन्न-भिन्न होते हैं। इससे इनके अध्ययन में कठिनता होतीहै। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से नामों में एरूपता लाना अत्यावश्यक है। नामों में एकरूपता लाने का सर्वप्रथम प्रयास लिनीयस (Linnaeus) ने किया। उन्होंनेसब जंतुओं कोलैटिननाम दिया। इस नामकरण के अनुसार जंतुओं के नाम दो शब्दों से बने होते हैं। इस प्रणाली को"द्विपद प्रणाली" (Binomial System) कहते हैं। इसके अनुसार जंतुओं का पहला नाम वंशिक नाम वंशिक नाम होता है और दूसरा उसका विशिष्ट नाम। वंशिक नाम अंग्रेजी के कैपिटल अक्षर से और दूसरा नाम छोटे अक्षर से लिख जाता है।इससे विभिन्न देशों में विभिन्न नामों से जो अव्यवस्था अव्यवस्था होती थी, वह दूर हो गई और इस प्रकार नामों में एकरूपता आ गई। ये वैज्ञानिक नाम आज बड़े महत्व के हैं और इनसे विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों को जंतुओं के अध्ययन में बड़ी सहायता मिली है।जातिजंतुओं का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार के जंतुओं को अलग अलगकरके शुरू करते हैं। हम देखते हैं कि गाय समस्त संसार मेंप्राय: एक सी होती है ओर वह घोड़े या भैंस से भिन्न होती है। अत: हम गाय को एक जाति में रखते हैं, घोड़े और भैंस को अलग-अलग दूसरी जातियों में। गाय की जाति घोड़े और भैंस कीजातियों से भिन्न है। कुछ जातियों की उपजातियाँ भी हैं। कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनका एक दूसरे से विभेद करना कठिन होता है। ज॓स॓ श॑र चितआवंशकुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनकी आकारिकी में बहुत सादृश्य है, पर बाह्य आकार में विभिन्नता देखी जाती है। इस प्रकार की कई जातियाँ हो सकती हैं जिनके बाह्य रूप में अंतर होने परभी आकारिकी में सादृश्य हो। ऐसी विभिन्न जातियों को एक वंश के अंतर्गत रखने के लिए उनमें कितनी समानता और कितनी विभिन्नता रखनी चाहिए, इसका निर्णय वैज्ञानिकों पर निर्भर करता है और बहुधा कुछ जातियाँ एक वंश से दूसरे वंशमें बदलती हुई पाई जाती हैं। पहले ऐसा होना सामान्य बात थी, पर अब इसमें बहुत कुछ स्थिरता आ गई है।कुलकुछ ऐसे वंश है जिनके प्राणियों में समानता देखी जाती है। ऐसे विभिन्न वंशवाले जंतुओं को एक स्थान पर एक कुल केअंतर्गत रखते हैं।गणएक ही किस्म की बनावट तथा सामान्य गुणवाले विभिन्न कुलोंके जंतुओं को एक साथ रखने की आवश्यकता पड़ सकती है। इन्हें जिस वर्ग में रखते हैं उसे "गण" कहते हैं। कई कुल मिलकर गण बनते हैं पर कुछ प्राणिविद् कुल और गण को पर्यायवाची शब्द मानते हैं। प्राणिविद् जंतुओं में ऐसा विभेद करने के लिए उनमें विशेष अंतर नहीं पाते, यद्यपि पादपविज्ञान में ऐसा अंतर स्पष्ट रूप से देखा जाता है।वर्गजंतुओं के उस समूह को कहते हैं, जिसका पद गण और संघ के बीच का होता है।संघजंतुजगत् का प्रारंभिक विभाजन संघ है। प्रत्येक संघ के प्राणियों की संरचना विशिष्ट होती है जिसके कारण प्रत्येक संघ के प्राणी एक दूसरे से भिन्न होते हैं। जंतुजगत् के प्राणियों का विभाजन दो उपजगतों में हुआ है।जो जंतु केवल एक कोशिका के बने हैं उन्हें प्रोटोजोआ (Protozoa) कहते हैं। यह उपजगत् अपेक्षया बहुत छोटा है।जिस जगत् में सबसे अधिक संख्या में जंतु आते हैं उसे मेटाजोआ (Metazco) कहते हैं। ये बहुकोशिकाओं के बने होते हैं।प्रोटोजोआ संघप्राय: सब ही प्रोटोज़ोआ बहुत छोटे जंतु होते हैं और साधारणतया सूक्ष्मदर्शी के सहारे ही देखे जाते हैं। पर कुछ प्रोटोज़ोआ विकसित होकर निवह (colony) बनते हैं, तब इन्हें केवल आँखों से देखा जा सकता है। प्रोटोज़ोआ के ऐसे निवह गंदे पानी में देखे जा सकते हैं। इनमें कुछ कशाभिका (flagellum) द्वारा, कुछ पक्ष्माभिका (cilia) द्वारा तथा कुछ अन्य साधनों से तैरते हुए पाए जाते हैं। अधिकांश प्रोटोज़ोआ परजीवी होते हैं तथा बड़े बड़े जीवों पर आश्रित हाते हैं। ये अनेक रोगों, जैसेमलेरिया,निद्रारोगइत्यादि के कारण होते हैं।इस संघ के अंतर्गत निम्नलिखित वर्ग आते हैं :वर्ग - 1. फ्लैजीलेटा (Flagellata),वर्ग - 2. राइजॉपोडा (Rhizopoda),वर्ग - 3. सिलिएटा (Ciliata),वर्ग - 4. टेलोस्पोरिडा (Telosporidia),वर्ग - 5. नाइडास्पोरिडिया (Cnidasporidia) तथावर्ग - 6. ऐक्निडोस्पोरिडिया (Acnidosporidia)।पॉरिफेरा (Porifera) संघइस संघ में स्पंजी जंतु आते हैं। ये एक स्थान पर बढ़ते हैं और अनेक कोशिकाओं से बने होते हैं। इनका शरीर वस्तुत:कोशों का बना होता है, जिनके पाश्र्व में अनेक छोटे छोटे छिद्र (pores) होते हैं। इन छिद्रों से पानी जाता है, इन्हीं से इन्हें भोजन मिलता है। इनमें भोजन के लिए कोई मुख या इंद्रियाँ नहीं होतीं। अनेक छोटी छोटी, कड़ी कंटिकाओं (spicules) के कारण इनका शरीर कड़ा होता है। इन्हीं से इनका पंजर बनता है, जैसा हम स्पंज में देखते हैं। इनकी कोशिकाएँ ऊतकों से बनी होती हैं।सिलेंटरेटा (Coelenterata) संघइसके अंतर्गत प्रवाल (मूँगा), जेली फिश, आनमोनि (anemones) आदि सरल जंतु आते हैं। इनका शरीर सामान्य कोशिकाओं के सघन स्तरों के बने होते हैं जो एक दूसरे से भिन्न होते हैं। यही बनावट अन्य उच्चतर जंतुओं की बनावट का आधार है। आंतरिक भाग पाचक क्षेत्र है। सिलेंटरेटा मेंएक ही सूराख होता है, जो मुख और गुदा दोनों का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त अन्य तीसरा स्तर नहीं होता, जैसा अधिक परिवर्धित जंतुओं में पाया जाता है। सिलेंटरेटा अक्रिय होते हैं और यद्यपि ये सक्रिय रूप से तैरते नहीं हैं, बहते रहते हैं। इनके विभिन्न अंग इनके मुख के चारों ओर वृत्ताकार व्यवस्थित रहते हैं। एक समय इसी के अंतर्गत टिनॉफोरा (Ctenophora) भी रखे जाते थे, पर अब अनेक प्राणिविदों ने इन्हें एक अलग संघ में रखा है।प्लैटीहेल्मिंथीज़ संघ (Platyhelminthes)इसके अंतर्गत चपटे कृमि (flat worms) सदृश अनेक कृमि आते हैं। इनके शरीर की बनावट अधिक विकसित पाई जाती है। ऐसे चपटे कृमि कुछ तो तालाबों और सरिताओं में स्वतंत्र रूप से रहते पाए जाते हैं और कुछ, जैसे पर्णाभ कृमि (flukes), रुधिर पर्णाभ कृमि तथा फीताकृमि (tapeworm) परजीवी होते हैं। इनके शरीर की बनावट सममित होती है, अर्थात् एक आधा दूसरे आधे भाग का दर्पणबिंब होता है। इनके शरीर में बाह्य और अंतर त्वचाओं के बीच एक तीसरा स्तर मध्यजनस्तर (mesoderm) होता है।नेमाटोडा (Nematoda) संघइस संघ में छोटे छोटे गोलकृमि (round worm) आते हैं। ये कई प्रकार के परजीवी होते हैं। इनके अंतर्गत अंकुश कृमि (hook worm) और ट्राइकिना (trichina) आते हैं जो मनुष्यों और अन्य उच्च जंतुओं की आँत में बहुधा पाए जाते हैं। इनके शरीर में कुछ ऐसे प्रगतिशील लक्षण पाए जाते हैं, जो चपटे कृमि में नहीं होते। इनकी आहारनली (gut) मेंमुख और गुदा अलग अलग होते हैं। इसी के अंतर्गत गोर्डियेसी (Gordiacea) आते हैं।नेमरटिनिया (Nemertinea) संघइसके अंतर्गत सरल कृमि सदृश समुद्री जंतु आते हैं। ये अपनी लंबी सदृश शुंडिका (proboscis) फैलाकर अपना भोजन पकड़ते हैं।नेमाटोमॉर्फा (Nematomorpha) संघइस संघ के प्राणी रोमकृमि हैं। ये पतले होते हैं और पानी में रहते हैं।रोटिफरा (Rotifera) संघइस संघ के प्राणी सूक्ष्म जंतु हैं, जो स्थिर ताजे पानी में रहते हैं। इनके सिर पर निकला हुआ एक वृत्त होता है, जिससे य चक्रधारी कृमि भी कहे जाते हैं। इन्हीं वृत्तों के सहारे ये तैरते हैं और आहार को मुख में डाल लेते हैं। ये सूक्ष्म पदार्थों और सूक्ष्म जंतुओं का भक्षण करते हैं। नर से बच्चे उत्पन्न करने में सहायता मिलती है, पर नर की सहायता के बिना भी मादा बच्चे उत्पन्न कर सकती है। शुष्कावस्था में ये अनेक वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। पवन तथा पक्षियों द्वारा दूर दूर तक जा सकते हैं। एक समय इन जंतुओं को ट्रॉकेलमेंथीज़ (Trochelmenthes) संघ के अंतर्गत रखा जाता था। अब इनका अपना अलग संघ है।पॉलिज़ोआ (Polyzoa) संघइसके अंतर्गत हरितजंतु आते हैं। ये छोटे समुद्री जीव हैं, जो समुद्रतल पर पादप सदृश निवह बनाकर रहते हैं। इनकीकुछ जातियाँ ताजे पानी में भी पाई जाती हैं।ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) संघइस संघ के प्राणी ताजे पानी में रहनेवाले जंतु हैं, पर समुद्रतल पर भी पाए जाते हैं। ये कवचों से आच्छादित होते हैं। इनके कवच मोलस्क के कवच सदृश होते हैं। इनके पाँच प्रमुख गण होते हैं और उनकी रचनाओं में पर्याप्त अंतर देखा जाता है।फोरोनिडी संघ (Phoronidea)इस संघ के प्राणी समुद्री जंतु हैं, जा बहुत नहीं पाए जाते। ये नलाकार होते हैं।किटॉग्नाथा (Chaetognatha) या वाणकृमि संघइस संघ के प्राणी पतले, पारदर्शक तथा बण के आकार के समुद्री जीव हैं।ऐनेलिडा (Annelida)इसके प्राणी खंडयुक्त कृमि हैं। इनमें कशेरुक नहीं होता,अन्यथा ये बहुत अधिक परिवर्धित जंतु हैं। सामान्यकेंचुआइसी वर्ग का जंतु है। समुद्र में इससे बहुत अधिक परिवर्धित जंतु पाए जाते हैं। जोंक भी इसी संघ का सदस्य है। इनकी विशेषता यह है कि इनका शरीर कई खंडो में विभाजितहोता है। प्रत्येक खंड पर वलयश्रेणियाँ होती हैं। प्रत्येक खंड में शरीर की रचना उपस्थित रहती है। इन जंतुओं में मध्यजनस्तर नहीं होता। इनके शरीर में एक कोटरविकसित होता है, जिसमें अनेक महत्व के अंग स्थित होते हैं। इनकेतंत्रिका तंत्रऔर रुधिरवाहनी तंत्र सुपरिवर्धित होते हैं, जो कशेरुकी जीवों और मानव से बहुत भिन्न होते हैं।आर्थ्रोपोडा (Arthropoda) संघइसके अंतर्गत संधि पादवाले जंतु आते हैं। ये ऐनेलिडा या इसी प्रकार के अन्य जंतुआं से विकसित होकर बने हैं। ये ऐनेलिडा या इसी प्रकार के अन्य जंतुओं से विकसित होकर बने हैं। ये ऐनेलिडा संघ के जंतुओं से बहुत कुछ समानता रखते हैं। कड़े कवच सदृश इनकी त्वचा के कारण इनका शरीर कड़ा होता है। शरीर में अनेक संधियों का होना, इनकी विशेषता है। इस संघ के क्रस्टेशिया (Crustacea) वर्ग केजंतु पानी में रहते हैं। इसके अंतर्गत झींगा मछली (lobtster), चिंगट मछली (crayfish), केकड़ा आदि आते हैं। इस संघ के अरैकनिडा (Arachnida) वर्ग के जंतु प्रधानतयास्थलीय हैं। मकड़ी, बिच्छू, अश्वनालाकार केकड़े आदि इसके अंतर्गत आते हैं। मिरिऐपोडा (Myriapoda) वर्ग के अंतर्गत अनेक पैरवाले जंतु, जैसे गोजर, शतपदी अदि आते हैं। इंसेक्टा (Insecta) वर्ग के अंतर्गत तीन जोड़ा पैरवाले और सामान्यत: पंख वाले जंतु आते हैं। इनकी लगभग 6,00,000 जातियाँ मालूम हैं। जंतुओं में ये सबसे अधिक विकसित जंतु हैं।मोलस्का (Mollusca) संघइस संघ के अधिकांश जंतु विभिन्न रूपों के समुद्री प्राणीहोते हैं, पर कुछ ताजे पानी और स्थल पर भी पाए जाते हैं। इनका शरीर कोमल और प्राय: आकारहीन होता है। ये प्रवर (mantle) में बंद रहते हैं। साधारणतया स्त्राव द्वारा कड़े कवच का निर्माण करते हैं। कवच कई प्रकार के होते हैं। कवच के तीन स्तर होते हैं। पतला बाह्यस्तर कैलसियम कार्बोनेट का बना होता है और मध्यस्तर तथा सबसे निचलास्तर मुक्ता सीप का बना होता है।ये स्क्विड (squid) और ऑक्टोपोडा से मिलते जुलते हैं पर उनसे कई लक्षणों में भिन्न होते हैं। इनमें खंडीभवन (segmentation) नहीं होता।👍एकाइनोडर्माटा (Echinodermata) संघमुख्य लेख :शूलचर्मीइस संघ के अंतर्गत अरीय बहि:कंकाल वाले जंतु आते हैं।तारामीन(starfish),समुद्री अर्चिन(sea-urchin),सैंड डॉलर्स(sanddollars) इसी के अंतर्गत आते हैं। ये मंद चालवाले होते हैं और साधारणतया समूह में रहते हैं। इनके डिंभ द्विपार्श्व सममित होते हैं, पर वयस्क त्रिज्यात: सममित (radially symmetrical) होते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनके शरीर में जल से भरी हुई नलियों की श्रेणियाँ रहती हैं, जिनसे अनेक पैर निकले रहते हैं। इन्हीं से इनमें गमनशीलता आती है। इनके परिवर्धन से पता लगता है कि ये कॉर्डेटा से न्यूनाधिक संबंधित हैं।कॉर्डेटा (Chordata) संघइस संघ के अंतर्गत रीढ़वाले जंतु आते हैं। आद्य किस्म के कुछ जंतु भी इसके अंतर्गत आते हैं। इन सबकी रचना तथा आकृति प्रगतिशील किस्म की होती है। इनका विकास ऐनेलिडा और आथ्र्रोपोडा से भिन्न प्रकार से हुआ है। ये द्विपाश्र्व सममित (bilaterally symmetical) होते हैं और अंशत: खंडों में विभाजित होते हैं। इन सबमें गिलछिद्र (gill slits), या कोष्ठ (pouch) होते हैं, जो जलीय जंतुओं में साँस लेने का कार्य करते हैं। पृष्ठ भाग पर पृष्ठरज्जु विकसित होते हैं। ऐनेलिड और आथ्र्रोपोडा मेंपृष्ठरज्जु अंदर रहते हैं। इस संघ के जंतुओं में एक लंबी नम्य शलाका (rod) होती है, जिसे पृष्ठरज्जु (notochord)कहते हैं। इसी से इनका शरीर तना हुआ रहता है। इस संघ के निम्नलिखित चार उपसंघ अधिक महत्व के हैं :हेमिकॉर्डा (Hemichorda)इस उपसंघ के प्राणी समुद्री जंतु हैं। इनके दो वर्ग हैं। देखने में ये ऐनेलिड जैसे लगते हैं, पर इनकी रचना ऐनेलिड जैसे लगते हैं, पर इनकी रचना ऐनेलिड से भिन्न होती हैं। इनमें कॉर्डेटा के सब लक्षण होते हैं, पर ये बहुत विकसित नहीं हैं। इनके शरीर के अग्र भाग में शुंड रहता है। इनके शरीर के अग्र भाग में शुंड रहता है, जिसके आधार पर कॉलर (collar) होते हैं।यूरोकॉर्डा (Urochorda)इस उपसंघ में कंचुक (tunicates) और समुद्री स्क्वस्र्ट (squirts) आते हैं। इनमें अनेक गिलछिद्र, तंत्रिकारज्जु और पृष्ठरज्जु होते हैं।सेफैलोकॉर्डा (Cephalochorda)इस उपसंघ के प्राणी छोटे पारभासक समुद्री जंतु हैं। देखने में मछली जैसे लगते हैं, पर इनकी रचना अधिक आद्य होती है। इनमें गिलछिद्र, तंत्रिकारज्जु तथा पृष्ठरज्जु,सब होते हैं। इनके उदाहरण ऐंफिआक्सस (Amphioxus) हैं।वर्टिब्रेटा (Vertebrata)इस उपसंघ के अंतर्गत रीढ़वाले जंतु आते हैं। इनमें पृष्ठरज्जु के स्थान में रीढ़ होती है। इनका पंजर अधिक विकसित होते है और इनके लक्षण (feature) अधिक विकसित होते हैं। इस उपसंघ के प्राणियों को सात वर्गों में विभक्त किया गया है:(1) ऐग्नाथा (Agnatha) - इस वर्ग के अंतर्गत बिना जबड़ेवाले कशेरुकी आते हैं। लैंप्री (lamprey), कुहाकिनी मीन (hogfish, cyclostoma) इस वर्ग के प्राणीहैं।(2) कांड्रिक्थीईज़ (Chondrichthyes) - इस वर्ग में उपास्थियुक्त मीन, हांगुर (shark), तनुका (skate) आदि आते हैं। इनमें जबड़े होते हैं, पर पंजर में हड्डी नहीं होती।(3) ऑस्टिइक्थीईज़ (Osteichthyes) - इस वर्ग में हड्डीवाले विकसित मीन आते हैं। सामान्य भोजय मछलियाँ इसी वर्ग की होती हैं।(4) ऐंफिबिया (Amphibia) - इस वर्ग के अंतर्गत मेढ़क, भेक (toad), सैलामैंडर (salamander) आदि आते हैं, जो जलऔर स्थल दोनों पर समान रूप से रहते हैं। इन कशेरुकियों केपैर विकसित होते हैं, जिससे ये स्थल पर भी चल सकते हैं।(5) रेप्टिलिया (Reptilia) या सरीसृप वर्ग - इस वर्ग के अंतर्गत कछुआ, छिपकली, साँप और मगर आते हैं, जो स्थल पर अंडे देते हैं। इनके अंडे कवचित होते हैं।(6) ऐवीज़ (Aves) या पक्षिवर्ग - इस वर्ग के अंतर्गत पक्षी आते हैं। ये लोग उड़नेवाले सरीसृपों के वंशज हैं।(7) मैमैलिया (Mammalia) या स्तनी वर्ग - इस वर्ग के अंतर्गत मानव और मानव से मिलते जुलते अन्य प्राणी आते हैं। ये उष्ण रुधिरवाले, बड़े मष्तिष्कवाले जंतु हैं, जिनका शरीर वालों या समूर (fur) से ढँका रहता है। ये बच्चे जनते हैं और उनका लालन पालन करते हैं। इसी वर्ग के अंतर्गत एक गण प्राइमेटीज़ (primates), अर्थात् नर-बानर-गण, है, जिसमें नर, बंदर, कपि, लीमर आदि रखे गए हैं।मानव को एक अलग कुल होमिनिडी (Hominidae) में भी रखते हैं।
पादप वर्गीकरणपादप वर्गिकी(Plant Taxonomy) के अन्तर्गत पृथ्वी परमिलने वाले पौधों की पहचान तथा पारस्परिक समानताओं व असमानताओं के आधार पर उनका वर्गीकरण किया जाता है। विश्वमें अब तक विभिन्न प्रकार के पौधों की लगभग 4.0 लाख जातियाँ ज्ञात है जिनमें से लगभग 70% जातियाँ पुष्पीय पौधों की है। प्राचीनकाल में मनुष्य द्वारा पौधों का वर्गीकरण उनकी उपयोͬगता जैसे भोजन के रूप में, रेशे प्रदान करने वाले, औषध प्रदान करने वाले आदि के आधार पर किया गया था लेकिन बाद में पौधों को उनके आकारिकीय लक्षणों (morphological characters) जैसे पादप स्वभाव, बीजपत्रों की संख्या, पुष्पीय भागों की संरचना आदि के आधार पर किया जाने लगा। वर्तमान में पौधों के आकारिकीय लक्षणों के साथ-साथ भौगोलिक वितरण, शारीरिक लक्षणों (Anatomical characters), रासायनिक संगठन, आण्विक लक्षणों (molecular characters) आदि को भी वर्गिकी में प्रयुस्त किया जाता है। इस प्रकार पादप वर्गिकी के उपयुस्त आधारों के अनुसार निम्न प्रकार के बिन्दु स्पष्ट हो जाते है -*.(1) कोशिका वर्गिकी (Cytotaxonomy) : कोशिकीय संरचना व संगठन के आधार पर*.(2) रसायन वर्गिकी (Chemotaxonomy) : रासायनिक संगठन के आधार पर*.(3) आण्विक वर्गिकी (molecular taxonomy) : आनुवांशिक पदार्थ के आधार परपादप या उद्भिदजीवाश्म काल:प्रारम्भिक कैम्ब्रियन से अब तक, लेकिनटेक्स्ट देखें, 520–0 मिलियन वर्षPreЄЄOSDCPTJKPgNवैज्ञानिक वर्गीकरणअधिजगत (डोमेन):सुकेन्द्रिक(अश्रेणिकृत रेगन्म)आर्कीप्लास्टिडा(Archaeplastida)जगत(रेगन्म):प्लाण्टी(Plantae)Haeckel, 1866[1]Divisionsहरा शैवाल(Green algae)*.क्लोरोफाइटा(Chlorophyta)*.कैरोफाइटा(Charophyta)स्थलीय पादप(embryophytes)*.असंवहनी पादप(Bryophytes या Non-vascular plants)*.Marchantiophyta—liverworts*.Anthocerotophyta—hornworts*.ब्रायोफाइटा(Moss)*.†Horneophytopsida*.संवहनी पादप(Vascular plants या tracheophytes)*.†Rhyniophyta—rhyniophytes*.†Zosterophyllophyta—zosterophylls*.Lycopodiophyta—clubmosses*.†Trimerophytophyta—trimerophytes*.फर्न(टेरिडोफाइटा)*.†Progymnospermophyta*.बीज पादप(spermatophytes)*.†Pteridospermatophyta—seed ferns*.Pinophyta—conifers*.Cycadophyta—cycads*.Ginkgophyta—ginkgo*.Gnetophyta—gnetae*.सपुष्पक पादक(Magnoliophyta)†निमैटोफाइट(Nematophytes)वर्गिकी शब्द का प्रयोग सबसे पहले प्रेन्च वनस्पति शास्त्री ए. पी. डी. केण्डोले (A.P.De. Candolle) ने 1834 में अपनी पुस्तक “Theories elementaire de la botanique” (Theory of Elementary Botany) में कियातथा इसमें वर्गीकरण के सामान्य सिद्धान्तों के अध्ययन के बारे में बताया तथा पादप वर्गिकी को इस प्रकार परिभाषित किया- :“पादप वर्गिकी वनस्पति विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत पौधों की पहचान, नामकरण एवं वर्गीकरण के बारे में अध्ययन किया जाता है।बाद में कैरोलस लिनीयस (Carolus Linnaeus) ने अपनी पुस्तक 'सिस्टेमा नेचुरी' (Systema Naturae) में वर्गीकरणीय विज्ञान (Systematics) शब्द का प्रयोग कियाजो ग्रीक भाषा के शब्द Systema से लिया गया है जिसका अर्थ समूहबद्ध करना या साथ-साथ रखना है।अत: स्पष्ट है कि वर्गिकी के अन्तर्गत निम्न कार्य प्रमुखतः सम्पन्न किये जाते है -*.(1) जाति को पहचान कर उसका पूरा विवरण प्रस्तुत करना अर्थात् आधारभूत वर्गिकी इकाई (Basic taxonomic unit) को पहचानना।*.(2) सजीवों की समानताओं एवं पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर इन आधारभूत इकाईयों का समूहबद्द करने के तरीकों का विकास करना।वर्गिकी के सिद्धान्तअमेरिकन वर्गिकीविज्ञ (Taxonomist) एडवर्ड चार्ल्स बेसी (Edward Charles Bessey) ने आवृतबीजियों की जातिवृत्तीय (Phylogenetic) वर्गिकी (Taxonomy) मेंअत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया। पौधों में कौन सी स्थिति प्रगत (Advanced) तथा कौन सी आद्य (Primitive) है इसके निर्धारण के लिये विभिन्न वर्गिकीविज्ञों (बेसी हͬचन्सन आदि) द्वारा कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जिसके प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित है -1. विकास का क्रम ऊपरी (upwards) तथा नीचे की ओर (downwards) दोनों दिशाओं में होता है।2. एक ही समय में पौधे के सभी अंगों में विकास समान गति सेनहीं होता है।3. किसी एक कुल या वंश में वृक्ष एवं क्षुप (trees and shrubs) पौधे शाकीय (herbaceous) एवं आरोही (Climbers) पौधों से अͬधक आदिम (Primitive) है।4. बहु वर्षी (Perennials) पादप, वार्षिक (annuals) पादपों से आद्य (primitive) है।5. स्थलीय पादपों (terrestrial plants) से जलीय पादप (aquatic plants) विकसित हुए हैं तथा अͬधपादप (epiphytes), मृतोपजीवी (saprophytes) और परजीवी (parasitic) पादप सबसे प्रगत (Advance) है।6. द्विबीजपत्री पादप (dicotyledons) एकबीजपत्री पादपों (monocotyledons) से आद्य (primitive) है।7. सरल व आशाͨखत तना (की प्रवृति) आद्य (primitive) तथा शाͨखत तना प्रगत है।8. पर्ण का पर्व सं ͬधयों पर एकल एवं सर्पिलाकार व्यवस्थित होना (spiral arrangement), सम्मुख (opposite) व चक्रिक (cyclic) रूप से व्यवस्थित होने से अͬधक आद्य (primitive) है।9. सरल पर्ण (Simple leaves) आद्य (primitive) तथा संयुस्त पर्ण (compound leaves) प्रगत है।10. चरलग्न पर्ण (persistent leaves) आद्य तथा पर्णपाती(decicuous) पर्ण प्रगत (advanced) है।11. बहुतयी (Polymerous) पुष्प आद्य (primitive) है तथा अल्पतयी (oligomerous) पुष्प प्रगत (advanced) है।12. द्विलिंगी पुष्प आद्य तथा एकलिंगी प्रगत है।13. उभयलिंगाश्रयी (Monoecious) पादप आद्य तथा एकलिगाश्रयी (dioecious) पादप प्रगत है।14. एकल पुष्प (solitary flowers) आद्य तथा पुष्पक्रम में (विन्यास) प्रगत है।15. दलयुस्त पुष्प (flowers with petals) आद्य तथा दलविहीन (apetalous) या नक्ष्न पुष्प प्रगत है।16. पृथकदलीय पुष्प (polypetalous flowers) आद्य तथा संयुस्त दलीय (gamopetalous) प्रगत है।17. दल विन्यास के विकास का क्रम इस प्रकार है :व्यावर्तित (Twisted), कोरछादी (Imbricate), कोरस्पर्शी (Valvate)18. त्रिज्यासममित (actinomorphic) पुष्प आद्य तथा एकव्यास सममित (zygomorphic) पुष्प प्रगत है।19. जायांगधर (hypogynous) पुष्प आद्य तथा जायांगोपरिक (epigynous) पुष्प सबसे प्रगत दशा है।20. बहुअण्डपता (polycarpy) आद्य तथा अल्पअण्डपता (oligocarpy) प्रगत दशा है।21. वियुस्ताण्डपता (apocarpous) आद्य तथा संयुस्ताण्डपता (syncarpous) प्रगत दशा है।22. भ्रूणपोषी (endospermic) बीज आद्य एवं अभ्रूणपोषी(nonendospermic) बीज प्रगत है।23. अͬधक पुंकेसरों युस्त पुष्प आद्य तथा कम पुंकेसरों वाले प्रगत है।24. पृथक पुंकेसरी (polystaminous) पुष्प आद्य तथा संयुस्त पुंकेसरी (synstaminous) पुष्प प्रगत है।डेविस (Davis, 1967) ने इनमें कुछ और लक्षणों को सम्मिलित किया है, जो इस प्रकार है :25. अननुपर्णी (exstipulate) पत्तियों की अपेक्षा अनुपर्णी (Stipulate) अͬधक आद्य है तथा स्वतंत्र अनुपर्ण (Free stipules) सलां ग अनुपर्ण की अपेक्षा आद्य है।26. द्विबीजपत्री पौधों में फायलोͫडक (phyllodic) पर्ण, पटलीय पर्ण की अपेक्षा प्रगत है।27. तने, शाखाओं, पत्तियों एवं सहपत्रों का कंटीलापन या व्युत्पन्न (derived) अͬधक आधु निक स्थिति है जो वातावरण के अनुकू लन के रूप में विकसित हुई है।28. प्रकीर्णन एवं वितरण की आद्य इकाई बीज है, लेकिन आगे चलकर चरम स्थिति में पुष्पक्रम अथवा टम्बल वीɬस (लुढकने वाले पौधों) में पूरा पौधा ही प्रकीर्णन की इकाई बन जाता है।29. पुष्प एवं पुष्पांगों की बहु रूपीयता, एकरूपीयता से विकसित है।कई एन्जियोस्पर्म्स कुलों में प्रगत एवं आद्य लक्षण दोनों ही पाये जाते है। लेबियेटी कुल में पुष्य का जायांगधर लक्षण आद्य है जबकि अन्य सभी लक्षण प्रगत माने जाते है। इसके पुष्पों में पृथक परिदल (perianth) एक आद्य लक्षण है। एक ही कुल में ऐसे आद्य एवं प्रगत लक्षणोंकी उपस्थिति उनकी स्थिति के बारे में कठिनाई प्रदर्शित करती है।वर्गीकरण की इकाइयाँपौधों की विस्तृत वर्गीकृत स्थिति का ज्ञान जिन इकाइयों द्वारा होता है, उन्हें वर्गीकरण की इकाई कहते है जैसे -1. जगत (Kingdom)2. प्रभाग (Division)3. उप प्रभाग (Sub-division)4. संवर्ग (Class)5. उपसंवर्ग (Sub-Class)6. गण (Order)7. उप गण (Sub-order)8. कुल (Family)9. उपकुल (Sub-Family)10. ट्राइब (Tribe)11. सब-ट्राइब (Sub-tribe)12. वंश (Genus)13. उप-वंश (Sub-genus)14. जाति (species) - (sps.)15. उप-जाति (Sub-species) - (ssp.)16. किस्म (Variety) - (var.)17. उप किस्म (subvariety) - (subvar.)18. फोर्मा (Forma) - (f.)19. स्लोन (Clone) - (cl.)विभिन्न वर्गिकीय वर्ग (Taxonomic categories) के कुछ प्रमाͨणक अनुलग्न (Suffix) नीचे दिये गये है :वर्ग (Class) -- अनुलग्न (Suffix)संवर्ग (Class) -- eaeगण (Order) -- alesउप-गण (Sub-Order) -- ineaeकुल (Family) -- aceaeउप-कुल (Sub-family) -- oideaeट्राइब (Tribe) -- eaeसब-ट्राइब (Sub-Tribe) -- inaeवैसे इन प्रमाͨणक अनुलग्नों के अपवाद भी है जिन्हें मान्यता प्राप्त है चूंकि ऐसे नाम काफी लंबी अवͬध तक प्रयुस्त किये जाते रहे तथा नामकरण नियमों से पहले काफी लोकप्रिय थे। उदाहरण के लिये सभी गणों (orders) का अनुलग्न-ales है परन्तु कुछ गण जैसे (glumiflorae व tubiflorae में यह- ae है ; इसी प्रकार सभी कुलों का अनुलग्न- aceae है परन्तु कुछ कुल जैसे Palmae, Cruciferae, Leguminosae, Umbelliferae, Labiatae आदि में यह नहीं है, फिर भी नियमावली में इन नामों में छूटकी व्यवस्था है। सभी वर्ग (Taxon) के नाम (कुल (Family)व इसकी नीचे की श्रेणी) को लेटिन भाषा में लिखना अनिवार्यहै।सामान्यत: सभी वर्गकों की आधारभू त इकाई वंश (Genus) होती है तथा इसके अन्तर्गत आने वाली सभी कोटियों (Rank) को लिखते समय निम्न दो मुख्य सिद्धान्तों का पालन करना अनिवार्य है-1. वंश, जाति तथा कोटियाँ हमेशा लेटिन भाषा में लिखी हों।2. लेटिन भाषा में लिखे शब्दों को इटेलिक अक्षरों (Italic fonts) में दर्शाना आवश्यक है।हाथ से लिखने पर या टाइप करते समय अधोरे खांकित (underline) किया जाना चाहिए।पादप जगत(Plantae) में शैवाल (एल्गी), ब्रायोफाइट, टेरिडोफाइट, अनावृतबीजी तथा आवृतबीजी आते हैं।शैवाल या एलजीमुख्य लेख :शैवालशैवाल के अंतर्गत लगभग 30,000 जातियाँ (species) हैं और इन्हें आठ मुख्य उपवर्गों में बाँटते हैं। उपवर्ग के स्थान में अब वैज्ञानिक इन्हें और ऊँचा स्थान देते हैं। शैवाल के उपवर्ग हैं : सायनोफाइटा (Cyanophyta), क्लोरोफाइटा (Chlorophyta), यूग्लीनोफाइटा (Euglenophyta), कैरोफाइटा (Charophyta), फियोफाइटा (Phaeophyta), रोडोफाइटा (Rhodophyta), क्राइसोफाइटा (Chrysophyta) और पाइरोफाइटा (Pyrrophyta)।उत्पत्ति के विचार से शैवाल बहुत ही निम्न कोटि के पादप हैं, जिनमें जड़, तना तथा पत्ती का निर्माण नहीं होता। इनमेंक्लोरोफिलके रहने के कारण ये अपना आहार स्वयं बनाते हैं। शैवाल पृथ्वी के हर भूभाग में पाए जाते हैं। नदी, तालाब, झील तथा समुद्र के मुख्य पादप भी शैवाल के अंतर्गत ही आते हैं। इनके रंग भी कई प्रकार के हरे, नीले हरे, लाल, कत्थई, नारंगी इत्यादि होते हैं। इनक रूपरेखा सरल पर कई प्रकार की होती है, कुछ एककोशिका सदृश, सूक्ष्म अथवा बहुकोशिका का निवह (colony) या तंतुमय (filamentous) फोते से लेकर बहुत बड़ेसमुद्री पाम(sea palm) के आकार के होते हैं। शैवाल में जनन की गति बहुत तेज होती है और वर्षा ऋतु में थोड़े ही समय में सब तालाब इनकी अधिक संख्या से हरे रंग के हो जाते हैं। कुछ शैवाल जलीय जंतुओं के ऊपर याघोंघोंके कवचों पर उग आते हैं।शैवाल मेंजननकई रीतियों से होता है। अलैंगिक रीतियों में मुख्यत: या तो कोशिकाओं के टूटने से दो या तीन या अधिकनए पौधे बनते हैं, या कोशिका के जीवद्रव्य इकट्ठा होकर विभाजित होते हैं औरचलबीजाणु(zoospores) बनाते हैं। यह कोशिका के बाहर निकलकर जल में तैरते हैं और समय पाकर नए पौधों को जन्म देते हैं। लैंगिक जनन भी अनेक प्रकार सेहोता है, जिसमें नर और मादा युग्मक (gametes) बनते हैं।इसके आपस में मिल जाने से युग्मनज (zygote) बनता है, जो समय पाकर कोशिकाविभाजन द्वारा नए पौधे उत्पन्न करता है। युग्मक अगर एक ही आकार और नाप के होते हैं, तो इसे समयुग्मन (Isogamy) कहते हैं। अगर आकार एक जैसा पर नाप अलग हो तो असमयुग्मन (Anisogamy) कहते हैं। अगर युग्मक बनने के अंग अलग अलग प्रकार के हों और युग्मक भी भिन्न हों, तो इन्हें विषम युग्मकता (Oogamy) कहते हैं। शैवाल के कुछ प्रमुख उपवर्ग इस प्रकार हैं :सायनोफाइटा(Cyonophyta) - ये नीले हरे अत्यंत निम्न कोटि के शैवाल होते हैं। इनकी लगभग 1,500 जातियाँ हैं, जो बहुत दूर दूर तक फैली हुई हैं। इनमें जनन हेतु एक प्रकार के बीजाणु (spore) बनते हैं। आजकल सायनोफाइटा या मिक्सोफाइटा में दो मुख्य गण (order) हैं : (1) कोकोगोनिऐलीज़ (Coccogoniales) और हॉर्मोगोनिएलीज़ (Hormogoniales)। प्रमुख पौधों के नाम इस प्रकार हैं, क्रूकॉकस (Chroococcus), ग्लीओकैप्सा (Gleoocapsa),ऑसीलैटोरिया (Oscillatoria), लिंगबिया (Lyngbya), साइटोनिमा (Scytonema), नॉस्टोक (Nostoc), ऐनाबीना (Anabaena) इत्यादि।क्लोरोफाइटा(Chlorophyta) याहरे शैवाल- इसकी लगभग 7,000 जातियाँ हर प्रकार के माध्यम में उगती हैं। ये तंतुवत संघजीवी (colonial), हेट्रॉट्रिकस (heterotrichous) या फिर एककोशिक रचनावाले (uniceleular) हो सकते हैं। जनन की सभी मुख्य रीतियाँ लैंगिक जनन, समयुग्मन इत्यादि तथा युग्माणु (zygospore), चलबीजाणु (Zoospore) पाए जाते हैं।यूग्लीनोफाइटा(Euglenophyta) - इसमें छोटे तैरनेवाले यूग्लीना (Euglena) इत्यादि को रखा जाता है, जो अपने शरीर के अग्र भाग में स्थित दो पतले कशाभिकाओं (flagella)की सहायता से जल में इधर उधर तैरते रहते हैं। इन्हें कुछ वैज्ञानिक जंतु मानते हैं पर ये वास्तव में पादप हैं, क्योंकि इनके शरीर में पर्णहरित होता है।कैरोफाइटा(Charophyta) - इसके अंतर्गत केरा (Chara) और नाइटेला (Nitella) जैसे पौधे हैं, जो काफी बड़े और शाखाओं से भरपूर होते हैं। इनमें जनन विषमयुग्मक (Oogomous) होता है और लैंगिक अंग प्यालिका (cupule)और न्यूकुला (nucula) होते हैं।फिओफाइटा(Phaeophyta) याकत्थई शैवाल- इसका रंग कत्थई होता है और लगभग सभी नमूने समुद्र में पाए जाते हैं। मुख्य उदाहरण हैं : कटलेरिया (Cutleria), फ्यूकस (Fucus), लैमिनेरिया (Laminaria) इत्यादि।रोडोफाइटा(Rhodophyta) यालाल शैवाल- यह शैवाल लाल रंग का होता है। इसके अंतर्गत लगभग 400 वंश (genus) और 2,500 जातियाँ हैं, जो अधिकांश समुद्र में उगती हैं। इन्हें सात गणों में बाँटा जाता है। लाल शैवाल द्वारा एक वस्तु एगार एगार (agar agar) बनती है, जिसका उपयोग मिठाईऔर पुडिंग बनाने तथा अनुसंधान कार्यों में अधिकतम होता है। इससे कई प्रकार की औषधियाँ भी बनती हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि शैवाल द्वारा ही लाखों वर्ष पहले भूगर्भ मेंपेट्रोलका निर्माण हुआ होगा।ब्रायोफाइटातीन वर्गों में बाँटा जाता है :*.हिपैटिसी*.ऐंथोसिरोटी और*.मससाई।ऐसा सोचा जाता है कि ब्रायोफाइटा की उत्पत्ति हरे शैवाल से हुई होगी।हिपैटिसीइसमें लगभग 8,500 जातियाँ हैं, जो अधिकांश छाएदार नम स्थान पर उगती हैं। कुछ एक जातियाँ तो जल में ही रहती हैं,जैसे टिकासिया फ्लूइटंस और रियला विश्वनाथी। हिपैटिसी में ये तीन गण मान्य हैं :स्फीसेकॉर्पेलीजस्पीरोकॉर्पेलीज़ में तीन वंश हैं - स्फीरोकर्पस (Sphaerocarpus), जीओथैलस (Geothallus) और रिएला (Riella)। पहले दो में लैंगिक अंग एक प्रकार के छत्र से घिरे रहते हैं और रिएला में वह अंग घिरा नहीं रहता। रिएलाकी एक ही जाति रिएला विश्वनाथी भारत में काशी के पास चकिया नगर में पाई गई है। इसके अतिरिक्त रिएला इंडिका अविभाजित भारत के लाहौर नगर के पास पाया गया था।मारकेनटिएलींज़ (Marchantiales)यह सबसे प्रमुख गण है और इसमें 32 वंश और 400 जातियाँ पाई जाती हैं, जिन्हें छह कुलों में रखा जाता है। इनमें जनन लैंगिक और अलैंगिक दोनों होते हैं। रिकसियेसी कुल में तीन वंश हैं। दूसरा कुल है कारसीनिएसी। टारजीओनिएसी का टारजीओनिया पौधा सारे संसार में पाया जाता है। इस गण का सबसे मुख्य कुल है मारकेनटिएसी, जिसमें 23 वश हैं। इनमें मारकेनटिया मुख्य है।जंगरमैनिएलीज़ (Jungermaniales)इन्हें पत्तीदार लीवरवर्ट भी कहते हैं। ये जलवाले स्थानों पर अधिक उगते हैं। इनमें 190 वंश तथा लगभग 8,000 जातियाँ हैं। इनके प्रमुख वंश हैं रिकार्डिया (Riccardia), फॉसॉम्ब्रोनिया (Fossombronia), फ्रूलानिया (Frullania) तथा पोरेला (Porella)। कैलोब्रियेलिज़ गण में सिर्फ दो वंश कैलोब्रियम (Calobryum) और हैप्लोमिट्रियम (Haplomitrium) रखे जाते हैं।ऐंथोसिरोटी (Anthocerotae)इस उपवर्ग में एक गण ऐंथोसिरोटेलीज़ है, जिसमें पाँच या छह वंश पाए जाते हैं। प्रमुख वंश ऐंथोसिरॉस (Anthoceros) और नोटोथिलस (Notothylas) हैं। इनमें युग्मकजनक (gametocyte), जो पौधे का मुख्य अंग होता है, पृथ्वी पर चपटा उगता है और इसमें बीजाणु-उद्भिद (sporophyte) सीधा ऊपर निकलता है। इनमें पुंधानी और स्त्रीधानी थैलस (thallus) के अंदर ही बनते हैं। पुंधानीनीचे पतली और ऊपर गदा या गुब्बारे की तरह फूली होती हैं।मससाई (Musci)इस वर्ग में मॉसपादपआते हैं, जिन्हें तीन उपवर्गों में रखा जाता है। ये हैं:*.(1) स्फैग्नोब्रिया,*.(2) ऐंड्रोब्रिया तथा*.(3) यूब्रियापहले उपवर्ग के स्फ़ैग्नम (sphagnum) ठंडे देशों की झीलों में उगते हैं तथा एक प्रकार का "दलदल" बनाते हैं। ये मरने पर भी सड़ते नहीं और सैकड़ों हजारों वर्षों तक झील में पड़े रहते हैं, जिससे झील दलदली बन जाती है। दूसरे उपवर्ग का ऐंड्रिया (Andrea) एक छोटा वंश है, जो गहरे कत्थई रंग का होता है। यह काफी सर्द पहाड़ों की चोटीपर उगते हैं। यूब्रेयेलीज़ या वास्तविक मॉस (True moss), में लगभग 650 वंश हैं जिनकी लगभग 14,000 जातियाँ संसार भर में मिलती हैं। इनके मध्यभाग में तने की तरह एक बीच का भाग होता है, जिसमें पत्तियों की तरह के आकार निकले रहते हैं। चूँकि यह युग्मोद्भिद (gametophytic) आकार है, इसलिये इसे पत्ती या तना कहना उचित नहीं हैं। हाँ, उससे मिलते जुलते भाग कहे जा सकते हैं। पौधों के ऊपरी हिस्से पर या तो पुंधानी और सहसूत्र (paraphysis) या स्त्रीधानी और सहसूत्र, लगे होते हैं।टेरिडोफाइटाइनकी उत्पत्ति करीब 35 करोड़ वर्ष पूर्व हुई होगी, ऐसा अधिकतर वैज्ञानिकों का कहना हैं। प्रथम टेरिडोफाइट पादपसाइलोटेलिज़ (Psilotales) समूह के हैं। इनकी उत्पत्ति के तीन चार करोड़ वर्ष बाद तीन प्रकार के टेरिडोफाइटा इस पृथ्वी पर और उत्पन्न हुए - लाइकोपीडिएलीज़, हार्सटेलीज़और फर्न। तीनों अलग अलग ढंग से पैदा हुए होंगे। टेरिडोफाइटा मुख्यत: चार भागों में विभाजित किए जाते हैं: साइलोफाइटा (Psilophyta), लेपिडोफाइटा (Lepidophyta), कैलेमोफाइटा (Calamophyta) और टेरोफाइटा (Pterophyta)।साइलोफाइटाये बहुत ही पुराने हैं तथा अन्य सभी संवहनी पादपों से जड़रहित होने के कारण भिन्न हैं। इनका संवहनी ऊतक सबसे सरल, ठोस रंभ (Protostele) होता है। इस भाग में दो गण हैं: (1) साइलोफाइटेलीज, जिसके मुख्य पौधे राइनिया (Rhynia)साइलोफाइटान (Psilophyton), ज़ॉस्टेरोफिलम (Zosterophyllum), ऐस्टेरोक्सिलॉन (Asteroxylon) इत्यादि हैं। ये सबके सब जीवाश्म हैं, अर्थात् इनमें से कोई भी आजकल नहीं पाए जाते है। करोड़ों वर्ष पूर्व ये इस पृथ्वी पर थे। अब केवल इनके अवशेष ही मिलते हैं।लेपिडोफाइटाइसके अंतर्गत आनेवाले पौधों को साधारणतयालाइकोपॉडकहतेहैं। इनके शरीर में तने, पत्तियाँ और जड़ सभी बनती हैं। पत्तियाँ छोटी होती हैं, जिन्हें माइक्रोफिलस (microphyllous) कहते हैं। इस भाग में चार गण हैं :*.(1) लाइकोपोडिएलीज़ की बीजाणुधानी समबीजाणु (homosporous) होती है, अर्थात् सभी बीजाणु एक हीप्रकार के होते हैं। इनमें कुछ पौधे तो जीवाश्म हैं और कुछ आजकल भी उगते हैं। इसका प्रमुख वंश प्रोटोलेपिडोडेंड्रॉन (Protolepidodendron) है और जीवित पौधा लाइकोपोडिय (Lycopodium)।*.(2) सेलैजिनेलेलीज़ (Selaginellales) गण का वंश सैलाजिनेला है। इसमें गुरु बीजाणुधानी (megasporangia) और लघुबीजाणुधानी (microsporangia) बनती हैं। इसकी एक जातिचकियाकेपहाड़ों पर काफी उगती है और इन्हें बाजार में संजीवनी बूटी के नाम से बेचते हैं।*.(3) लेपिडोडेंड्रेलीज़ गण जीवाश्म हैं। ये बड़े वृक्ष की तरह थे। लेपिडोडेंड्रॉन (Lepidodendron), बॉथ्रियोडेंड्रॉन (Bothriodendron) तथा सिजिलेरिया (Sigillaria) इसके मुख्य पौधे थे।*.(4) आइसोइटेलीज़ गण के वंश भी जीवाश्म हैं। केवल एक वंश आइसोइटीज़ (Isoetes) ही आजकल उगता है और इसे जीवित जीवाश्म भी कहते हैं। यह पौधा ताल तलैया तथा धान के खेत में उगता है। प्लिउरोमिया (Pleuromia) भीजीवाश्मपौधा था।कैलेमोफाइटाये बहुत पुराने पौधे हैं जिनका एक वंश एक्वीसीटम (Equisetum) अभी भी उगता है। इस वर्ग में पत्तियाँ अत्यंत छोटी होती थीं। इन्हें हार्सटेल (Horsetails), याघोड़े की दुम की आकारवाला, कहा जाता है। इसमें जनन के लिये बीजाणुधानियाँ (sporangia) "फोर" पर लगी होती थीं तथा उनका एक समूह साथ होता था। ऐसा ही एक्वीसीटम में होताहै, जिसे शंकु (Strobites) कहते हैं। यह अन्य टेरिडोफाइटों में नहीं होता। इसमें दो गण हैं : (1) हाइनिऐलीज़ (Hyeniales), जिसके मुख्य पौधे हाइनिया (Heyenia) तथा कैलेमोफाइटन (Calamophyton) हैं। (2) स्फीनोफिलेलीज़ दूसरा वृहत् गण है। इसके मुख्य उदाहरण हैं स्फीनोफिलम (Sphenophyllum), कैलेमाइटीज़ (Calamites) तथा एक्वीसीटम।टीरोफाइटाइसके सभी अंग काफी विकसित होते हैं, संवहनी सिलिंडर (vascular cylinder) बहुत प्रकार के होते हैं। इनमें पर्ण अंतराल (leaf gap) भी होता है। पत्तियाँ बड़ी बड़ी होती हैं तथा कुछ में इन्हीं पर बीजाणुधानियाँ लगी होती हैं। इन्हें तीन उपवर्गों में बाँटते हैं-प्राइमोफिलिसीज़ (Primofilices)इस उपवर्ग में तीन गण (1) प्रोटोप्टेरिडेलीज़ (Protopteridales), (2) सीनॉप्टेरिडेलीज़ (Coenopteridales) और (3) आर्किॲपटेरिडेलीज़ (Archaeopteridales) हैं, जिनमें पारस्परिक संबंध का ठीक ठीक पता नहीं है। जाइगॉप्टेरिस (Zygopteris), ईटाप्टेरिस (Etapteris) तथा आरकिआप्टेरिस (Archaeopteris) मुख्य उदाहरण हैं।यूस्पोरैंजिएटी (Eusporangiatae)जिसमें बीजाणुधानियों के एक विशेष स्थान पर बीजाणुपर्ण (sporophyll) लगे होते हैं, या एक विशेष प्रकार के आकार में होते हैं, जिसे स्पाइक (spike) कहते हैं, उदाहरण ऑफिओग्लॉसम (Ophioglossum), बॉट्रिकियम (Botrychium), मैरैटिया (Marattia) इत्यादि हैं।लेप्टोस्पोरैंजिएटीजो अन्य सभी फर्न से भिन्न हैं, क्योंकि इन बीजाणुधानियों के चारों ओर एक "जैकेट फर्नों स्तर" होता है और बीजाणु की संख्या निश्चित रहती है। इसका फिलिकेलीज़ गण बहुत ही बृहत् है। इस उपवर्ग को निम्नलिखित कुलों में विभाजित करते हैं-(1) आस्मंडेसी, (2) राईज़िएसी, (3) ग्लाइकीनिएसी, (4) मेटोनिएसी, (5) डिप्टैरिडेसी,(6) हाइमिनोफिलेसी, (7) सायथियेसी (8) डिक्सोनिएसी, (9) पालीपोडिएसी तथा (10) पारकेरिएसीइन सब कुलों में अनेक प्रकार के फ़र्न है। ग्लाइकीनिया में शाखाओं का विभाजन द्विभाजी (dichotomous) होता है। हाइमिनोफिलम को फिल्मी फर्न कहते हैं, क्योंकि यह बहुत ही पतले और सुंदर होते हैं। सायेथिया तो ऐसा फर्न है, जो ताड़ के पेड़ की तरह बड़ा और सीधा उगता है। इस प्रकार के फर्न बहुत ही कम हैं। डिक्सोनिया भी इसी प्रकार बहुत बड़ा होता है। पालीपोडिएसी कुल में लगभग 5,000 जातियाँ हैं और साधारण फर्न इसी कुल के हैं। टेरिस(Pteris), टेरीडियम (Pteridium), नेफ्रोलिपिस (Nephrolepis) इत्यादि इसके कुछ उदाहरण हैं। दूसरा गण है मारसीलिएलीज़, जिसका चरपतिया (Marsilea) बहुत ही विस्तृत और हर जगह मिलनेवाला पौधा है। तीसरा गण सैलवीनिएलीज है, जिसके पौधे पानी में तैरते रहते हैं, जैसे सैलवीनिया (Salvinia) और ऐज़ोला (Azolla) हैं। ऐज़ोला के कारण ही तालाबों में ऊपर सतह पर लाल काई जैसा तैरता रहता है। इन पौधों के शरीर में हवा भरी रहती है, जिससे ये आसानी से जल के ऊपर ही रहते हैं। इनके अंदर एक प्रकार का नीलाहरा शैवाल ऐनाबीना (Anabaena) रहता है।अनावृतबीजी पौधे (Gymnosperm)संवहनी पौधों में फूलवाले पौधों को, जिनके बीज नंगे होते हैं, अनावृतबीजी कहते हैं। इसके पौधे मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं। एक तो साइकस की तरह मोटे तनेवाले होते हैं, जिनके सिरे पर एक झुंड में लंबी पत्तियाँ निकलती हैं और मध्य में विशेष प्रकार की पत्तियाँ होती हैं। इनमें से जिनमें परागकण बनते हैं उन्हें लघुबीजाणुपर्ण (Microsporophyll) तथा जिनपर नंगे बीजाणु लगे होते हैंउन्हें गुरुबीजाणुपर्ण (Megasporophyll) कहते हैं। इस समूह को सिकाडोफिटा (Cycadophyta) कहते हैं और इनमें तीन मुख्य गण हैं :*.(1) टेरिडोस्पर्म (Pteridosperms) या सिकाडोफिलिकेलीज़ (Cycadofilicales),*.(2) बेनिटिटेलीज़ या सिकाडिआयडेलीज़ (Bennettitales or Cycadeoidales) और*.(3) साइकडेलीज़ (Cycadales)।पहले दो गण जीवाश्म हैं। इनके सभी पौधे विलुप्त हो चुके हैं। इनके बहुत से अवशेष पत्थरों के रूप मेंराजमहल पहाड़ियोंमें मिलते हैं। मुख्य उदाहरण है लिजिनाप्टेरिस (Lyginopteris), मेडुलोज़ा (Medullosa)तथा विलियम्सोनिया (Williamsonia)। तीसरे गण सिकाडेलीज़ के बहुत से पौधे विलुप्त हैं और नौ वंश अब भी जीवित हैं। प्रमुख पौधों के नाम हैं, साइकैस (Cycas), ज़ेमिया (Zamia), एनसेफैलोर्टस (Encephalortos), स्टैनजीरिया (Stangeria) इत्यादि।अनावृतबीजी पौधों का दूसरा मुख्य प्रकार है कोनिफरोफाइटा (Coniferophyta), जिसमें पौधे बहुत ही बड़े और ऊँचे होते हैं। संसार का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा पौधा सिक्वॉय (Sequoia) भी इसी में आता है। इसमें चार मुख्य गण हैं :*.(1) कॉरडेआइटेलीज़ (Cordaitales),*.(2) जिंगोएलीज़ (Ginkgoales),*.(3) कोनिफरेलीज़ (Coniferales) और*.(4) निटेलीज़ (Gnetales)अब सभी कॉरडेआइटेलीज़ जीवाश्म हैं और इनके बड़े बड़े तनों के पत्थर अब भी मिलते हैं। ज़िगोएलीज़ के सभी सदस्य विलुप्त हो चुके हैं। सिर्फ एक ही जाति अभी जीवित है, जिसका नाम जिंगोबाइलोबा (Ginkgobiloba), या मेडेन हेयर ट्री, है। यह चीन में पाया जाता है तथा भारत में इसके इने गिने पौधे वनस्पति वाटिकाओं में लगाए जाते हैं। यह अत्यंत सुंदर पत्तीवाला पेड़ है, जो लगभग 30 से 40 फुट ऊँचाई तक जाता है।कोनिफरेलीज़ गण में तो कई कुल हैं और सैकड़ों जातियाँ होती हैं। इनके पेड़, जैसे सिक्वॉय, चीड़, देवदार, भाऊ के पेड़ बहुत बड़े और ऊँचे होते हैं। चीड़ तथा देवदार के जंगल सारे हिमालय पर भरे पड़े हैं। चीड़ से चिलगोजा जैसा पौष्टिक फल निकलता है, देवदार तथा चीड़ की लकड़ी से लुगदीऔर कागज बनते हैं। इनमें बीज एक प्रकार के झुंड में होते हैं, जिन्हें स्ट्रबिलस या "कोन" कहते हैं। पत्तियाँ अधिकांश नुकीली तथा कड़ी होती हैं। ये पेड़ ठंडे देश तथा पहाड़ पर बहुतायत से उगते हैं। इनमें बहुधा तारपीन के तेल जैसा पदार्थ रहता है। उत्पत्ति और जटिलता के विचार से तो ये आवृतबीजी (Angiosperm) पौधों से छोटे हैं, पर आकार तथा बनावट में ये सबसे बढ़ चढ़कर होते है।चौथे गण निटेलीज़ में सिर्फ तीन ही वंश आजकल पाए जाते हैं-(1) नीटम (Gnetum), (2) एफीड्रा (Ephedra) और (3) वेलविचिया (Welwitschia)।पहले दो तो भारत में मिलते हैं और तीसरा वेलविचिया मिराबिलिस (Welwitschia mirabilis)। सिर्फ पश्चिमी अफ्रीका के समुद्रतट पर मिलता है। एफीड्रा सूखे स्थान कापौधा है, जिसमें पत्तियाँ अत्यंत सूक्ष्म होती हैं। इनसेएफीड्रीन नामक दवा बनती है। आजकल वैज्ञानिक इन तीनों वंशों को अलग अलग गणों में रखते हैं। इन सभी के अतिरिक्त कुछ जीवाश्मों के नए गण समूह भी बनाए गए हैं, जैसे राजमहल पहाड़ का पेंटोक्सिली (Pentoxylae) और रूस का वॉजनोस्कियेलीज़ (Vojnowskyales) इत्यादि।आवृतबीजी पौधे (Angiosperms)आवृतबीजी पौधों में बीज बंद रहते हैं और इस प्रकार यह अनावृतबीजी से भिन्न हैं। इनमें जड़, तना, पत्ती तथा फूल भी होते हैं। आवृतबीजी पौधों में दो वर्ग हैं :*.(1) द्विबोजपत्री (dicotyledon) और*.(2) एक बीजपत्री (monocotyledon)पहले के अंतर्गत आनेवाले पौधों में बीज के अंदर दो दाल रहती हैं और दूसरे में बीज के अंदर एक ही दाल होती है। द्विबीजपत्री के उदाहरण, चना, मटर, आम, सरसों इत्यादि हैं और एकबीजपत्री में गेहूँ, जौ, बाँस, ताड़, खजूर, प्याज हैं।बीजपत्र की संख्या के अतिरिक्त और भी कई तरह से ये दोनों भिन्न हैं जैसे जड़ और तने के अंदर तथा बाहर की बनावट, पत्ती और पुष्प की रचना, सभी भिन्न हैं। द्विबीजपत्री की लगभग 2,00,000 जातियों को 250 से अधिक कुलों में रखा जाता है।आवृतबीजीय पादप में अलग अलग प्रकार के कार्य के लिये विभिन्न अंग हैं, जैसे जल तथा लवण सोखने के लिये पृथ्वी के नीचे जड़ें होती हैं। ये पौधों को ठीक से स्थिर रखने के लिये मिट्टी को जकड़े रहती हैं। हवा में सीधा खड़ा रहने के लिये तना मजबूत और शाखासहित रहता है। यह आहार बनाने के लिये पत्तियों को जन्म देता है और जनन हेतु पुष्प बनाता है। पुष्प में पराग तथा बीजाणु बनते हैं

आईयूपीएसी नामपद्धतिआईयूपीएसी नामकरण(IUPAC nomenclature) रासायनिक यौगिकों के नामकरण की एक पद्धति है। यह पद्धति आईयूपीएसी(International Union of Pure and Applied Chemistry (IUPAC)) के द्वारा विकसित की गयी तथा यही इस प्रणाली को अद्यतन रखती है।कार्बनिक यौगिकों का नामकरणमुख्य लेख :कार्बनिक रसायनों की आईयूपीएसी नामपद्धतिअकार्बनिक यौगिकों का नामकरणमुख्य लेख :अकार्बनिक रसायनों की आईयूपीएसी नामपद्धतिटाइप-१ ऑयनिक द्विक यौगिकLiBr—लिथियम ब्रोमाइडCaO—कैल्सियम ऑक्साइडटाइप-२ ऑयनिक द्विक यौगिकFe2O3-- आइरन (III) क्लोराइडPbS2-- लेड (IV) सल्फाइडSome ionic compounds containpolyatomic ions, which are charged entities containing two or more covalently bonded types of atoms. It is important to know the names of common polyatomic ions; these include:*.ammonium(NH4+)*.nitrite(NO2−)*.nitrate(NO3−)*.sulfite(SO32−)*.sulfate(SO42−)*.hydrogen sulfate(bisulfate) (HSO4−)*.hydroxide(OH−)*.cyanide(CN−)*.phosphate(PO43−)*.hydrogen phosphate(HPO42−)*.dihydrogen phosphate(H2PO4−)*.carbonate(CO32−)*.hydrogen carbonate(bicarbonate) (HCO3−)*.hypochlorite(ClO−)*.chlorite(ClO2−)*.chlorate(ClO3−)*.perchlorate(ClO4−)*.acetate(C2H3O2−)*.permanganate(MnO4−)*.dichromate(Cr2O72−)*.chromate(CrO42−)*.peroxide(O22−)*.superoxide(O2-)*.oxalate(C2O42-)*.hydrogenoxalate(HC2O4-)टाइप-३ ऑयनिक द्विक यौगिकCO2--कार्बन डाईऑक्साइडSF4--सल्फर टेट्राफ्लोराइडकिन्तु H2O को प्रायःजलही कहा जाता है, न कि 'डाईहाइड्रोजन मोनो आक्साइड'। इसी प्रकार NH2कोअमोनियाकहते हैं न कि 'हाइड्रोजन नाइट्राइड'।

द्विपद नामपद्धति

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